जब नहीं था साबुन-सर्फ तब कैसे साफ होकर चमकते थे राजा-रानियों के कपड़े
दिल्ली। भारत में पहली बार आधुनिक साबुन अंग्रेज 1890 के दशक में लेकर आए थे। पहले वो ब्रिटेन से आयात हुआ फिर यहां उसकी फैक्ट्री खुली, लेकिन उससे पहले भारतीय अपने कपड़े कैसे धोते थे, कैसे राजा-रानियां के महंगे कपड़ों को साफ करके चमका दिया जाता था इसके अलावा कपड़ों को धोने और नहाने में खुद को साफ करने के अपने तरीके थे, क्या आपको पता है ? नहीं पता तो चलिये हमारे साथ और जान लीजिये।
क्या आपने कभी इस बात पर गौर किया है कि जब साबुन और सर्फ नहीं रहे होंगे तो कपड़े कैसे धुलते होंगे। राजा-रानियों के महंगे कपड़े कैसे साफ होकर चमकते होंगे। कैसे आम साधारण व्यक्ति भी अपने कपड़े धोता होगा।
भारत में आधुनिक साबुन की शुरुआत 130 साल से पहले पहले ब्रिटिश शासन में हुई थी। लीबर ब्रदर्स इंग्लैंड ने भारत में पहली बार आधुनिक साबुन बाजार में उतारने का काम किया। पहले तो ये ब्रिटेन से साबुन को भारत में आयात करती थी और उनकी मार्केटिंग करती थी। जब भारत में लोग साबुन का इस्तेमाल करने लगे तो फिर यहां पहली बार उसकी फैक्ट्री लगाई गई। ये फैक्ट्री नहाने और कपड़े साफ करने दोनों तरह के साबुन बनाती थी। नॉर्थ वेस्ट सोप कंपनी पहली ऐसी कंपनी थी जिसने 1897 में मेरठ में देश का पहला साबुन का कारखाना लगाया। ये कारोबार खूब फला फूला। उसके बाद जमशेदजी टाटा इस कारोबार में पहली भारतीय कंपनी के तौर पर कूदे। लेकिन सवाल यही है कि जब भारत में साबुन का इस्तेमाल नहीं होता था। सोड़े और तेल के इस्तेमाल से साबुन बनाने की कला नहीं मालूम थी तो कैसे कपड़ों को धोकर चकमक किया जाता था।
रीठा का खूब इस्तेमाल होता था
भारत वनस्पति और खनिज से हमेशा संपन्न रहा है। यहां एक पेड़ होता है जिसे रीठा कहा जाता है। तब कपड़ों को साफ करने के लिए रीठा का खूब इस्तेमाल होता था। राजाओं के महलों में रीठा के पेड़ अथवा रीठा के उद्यान लगाए जाते थे। महंगे रेशमी वस्त्रों को कीटाणु मुक्त और साफ करने के लिए रीठा आज भी सबसे बेहतरीन ऑर्गेनिक प्रोडक्ट है। प्राचीन भारत में रीठे का इस्तेमाल सुपर सोप की तरह होता था। इसके छिलकों से झाग पैदा होता था, जिससे कपड़ों की सफाई होती थी, वो साफ भी हो जाते थे और उन पर चमक भी आ जाती थी। रीठा कीटाणुनाशक का भी काम करता था। अब रीठा का इस्तेमाल बालों को धोने में खूब होता है। रीठा से शैंपू भी बनाए जाते हैं। ये अब भी खासा लोकप्रिय है। पुराने समय में भी रानियां अपने बड़े बालों को इसी से धोती थीं। इसे सोप बेरी या वाश नट भी कहा जाता था।
गर्म पानी में डालकर उबाला जाता था कपड़े तब दो तरह से साफ होते थे। आम लोग अपने कपड़े गर्म पानी में डालते थे और उसे उबालते थे, फिर उसमें से निकालकर कुछ ठंडा करके उसे पत्थरों पर पीटते थे, जिससे उसकी मैल निकल जाती थी। ये काम बड़े पैमाने पर बड़े बड़े बर्तन और भट्टियां लगाकर किया जाता था। अब भारत में जहां बड़े धोबी घाट हैं वहां कपड़े आज भी इन्हीं देशी तरीकों से साफ होते हैं। उसमें साबुन या सर्फ का इस्तेमाल नहीं होता।
महंगे कपड़ों को रीठा के झाग से धोते थे
महंगे और मुलायम कपड़ों के लिए रीठा का इस्तेमाल होता था। पानी में रीठा के फल डालकर उसे गर्म किया जाता है। ऐसा करने से पानी में झाग उत्पन्न होता है। इसको कपड़े पर डालकर उसे ब्रश या हाथ से पत्थर या लकड़ी पर रगड़ने से ना कपड़े साफ हो जाते थे बल्कि कीटाणुमुक्त भी हो जाते थे। शरीर पर किसी प्रकार का रिएक्शन भी नहीं करते।
सफेद रंग का एक खास पाउडर भी आता था काम
एक तरीका साफ करने का और था, जो भी खूब प्रचलित था। ग्रामीण क्षेत्रों में खाली पड़ी भूमि पर, नदी-तालाब के किनारे अथवा खेतों में किनारे पर सफेद रंग का पाउडर दिखाई देता है जिसे ‘रेह’ भी कहा जाता है। भारत की जमीन पर यह प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। इसका कोई मूल्य नहीं होता। इस पाउडर को पानी में मिलाकर कपड़ों को भिगो दिया जाता है। इसके बाद कपड़ों लकड़ी की थापी या पेड़ों की जड़ों से बनाए गए जड़ों से रगड़कर साफ कर दिया जाता था। रेह एक बहुमूल्य खनिज है। इसमें सोडियम सल्फेट, मैग्नीशियम सल्फेट और कैल्शियम सल्फेट होता है, इसमें सोडियम हाइपोक्लोराइट भी पाया जाता है, जो कपड़ों को कीटाणुमुक्त कर देता है।
नदियों और समुद्र के सोडा से भी साफ होते थे कपड़े
जब नदियों और समुद्र के पानी में सोड़े का पता लगा तो कपड़े धोने में इसका भरपूर इस्तेमाल होने लगा। भारतीय मिट्टी और राख से रगड़कर नहाते थे। प्राचीन भारत ही नहीं बल्कि कुछ दशक पहले तक भी मिट्टी और राख को बदन पर रगड़कर भी भारतीय नहाया करते थे या फिर अपने हाथ साफ करते थे। राख और मिट्टी का इस्तेमाल बर्तनों को साफ करने में भी होता था। पुराने समय में लोग सफाई के लिए मिट्टी का प्रयोग करते थे। (साभार)

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