शिवपुरी। निजी अस्पतालों को लेकर देश की सर्वोच्च अदालत ने हाल ही में बड़ी ध्यान देनें योग्य टिप्पणी की है।जस्टिस डी वाय चंद्रचूड़ एवं एमआर शाह की युगल पीठ ने कहा कि " निजी अस्पताल अब एक बड़े उधोग में बदल गए है जो लोगों के दुख दर्द पर फलफूल रहे हैं। वे पैसा बनाने की मशीन बन गए है।हम इन्हें इंसानी दर्द की कीमत पर सम्रद्ध होने की अनुमति नही दे सकते है"सुप्रीम कोर्ट ने इन अस्पतालों की तुलना रियल इस्टेट इंडस्ट्री तक से की।सवाल यह कि सुप्रीम कोर्ट के इस रुख के बाद क्या आम आदमी के लिए निजी अस्पतालों का रवैया इंडस्ट्री के स्थान पर जनोन्मुखी हो सकेगा है?असल में सुप्रीम कोर्ट का यह रुख खुद ही विरोधाभासी अधिक है क्योंकि पिछले दिन इसी युगलपीठ ने बॉम्बे हाईकोर्ट के उस निर्णय पर दखल देनें से मना कर दिया था जिसमें महाराष्ट्र सरकार के उस आदेश को निरस्त कर दिया गया था जो गैर कोविड मरीजों के इलाज की दरें तय करने से जुड़ा था।महाराष्ट्र सरकार ने प्रदेश के निजी अस्पतालों के लिए इलाज एवं परामर्श शुल्क से जुड़ी अधिसूचनाऐं जारी की थी जिन्हें नागपुर पीठ ने यह कहकर खारिज कर दिया था कि राज्य सरकार ऐसा नही कर सकती है।जाहिर है सुप्रीम कोर्ट के इस रवैये से देश की आम जनता को कोई राहत की उम्मीद नही होगी।बेहतर होता सर्वोच्च अदालत केंद्र सरकार को निजी अस्पतालों की मनमानी वसूली के विरुद्ध एक समावेशी एवं साक्ष्य केंद्रित कानून बनाने के लिए आदेशित करती।वैसे आजादी के 75 बर्ष बाद भी देश में आम आदमी अपने स्वास्थ्य के लिए आज भी सरकार से अधिक निजी अस्पतालों के रहमोकरम पर निर्भर है।स्वास्थ्य राज्य का बिषय होने के चलते ऐसा कोई केन्द्रीयकृत ढांचा ही नही है जो निजी क्षेत्र के स्वास्थ्य संस्थानों को शुल्क और चिकित्सकीय सेवा न्यूनता के मामलों में अधिनियमित करता हो।कोविड संकट में निजी क्षेत्र के अस्पतालों में जिस तरह से जनता का अनाप शनाप बिलिंग के माध्यम से शोषण किया है वह हमारी समूची व्यवस्था की विवशता को ही उजागर करता है।
बिडम्बना यह है कि हर लोकप्रिय सरकार जनस्वास्थ्य को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता दर्शाती है लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र का बुनियादी ढांचा इतना जर्जर औऱ अपर्याप्त है कि अधिसंख्य आबादी हमारे पड़ोसी देश बांग्लादेश,भूटान,श्रीलंका जैसे देशों की तुलना में निजी क्षेत्र में महंगी दरों पर अपना इलाज कराने के लिए विवश है।संसद के मौजूदा सत्र में सरकार ने खुद स्वीकार किया है कि देश में कुल एलोपैथी चिकित्सकों का बमुश्किल 20 फीसदी ही सरकारी सेवाओं में सलंग्न है। जाहिर है भारत में अधिकतर नागरिक अपने इलाज के लिए निजी डॉक्टरों या अस्पतालों पर ही निर्भर है।संसद के पिछले सत्र में भी सरकार ने पटल पर इसे स्वीकार किया है कि जनता को लूटने वाले निजी अस्पतालों पर उसका कोई वैधानिक अंकुश इसलिए नही है क्योंकि स्वास्थ्य राज्य का विषय है।वैसे केंद्र सरकार ने क्लिनिकल एस्टबलिशमेंट एक्ट बनाया है लेकिन इसे केवल 11 राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों ने ही लागू किया है।जिन राज्यों ने इसे लागू किया है वहां भी कोविड में मरीजों से लाखों के बिल वसूले गए।यानी जिस रियल इस्टेट इंडस्ट्री से अस्पतालों की तुलना सुप्रीम कोर्ट कर रहा है वह सही ही है।लेकिन बुनियादी सवाल यह कि जनता के साथ जारी इस शोषण का विकल्प क्या है?क्या देश की सभी सरकारें इस इंडस्ट्री के आगे जानबूझकर हार मान रही है या फिर सरकारी ढांचा खड़ा करने में हम इतना पिछड़ चुके है कि इसे पटरी पर लाने में भी 70 साल औऱ लगने वाले है।सवाल नीतिगत भी है और नैतिक भी।इन सवालों के इतर आमआदमी की पीड़ा उजागर करता पक्ष बहुत ही दुःखद है। इस बर्ष की आर्थिक सर्वेक्षण में भी यह तथ्य सामने आ चुका है कि देश की 17 फीसदी आबादी अपनी कुल कमाई का 10 फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च करती है।4 फीसदी आबादी का यह खर्च 25 फीसदी से ज्यादा है।जब कुल डॉक्टरों का केवल 20 फीसदी ही सरकारी सेवा में हैं इसलिए 74 फीसदी लोग इस देश में प्राइवेट अस्पतालों की ओपीडी में और 65 फीसदी भर्ती होकर इलाज कराने के लिए मजबूर है।हर पांच में से एक भारतीय इलाज के लिए कर्जा लेता है।एक और डरावना आंकड़ा आर्थिक सर्वेक्षण से मिलता है वह यह कि हर साल स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध ही नही होने के कारण करीब साढ़े आठ लाख लोग भारत मे मर जाते है।यही नही करीब 16 लाख लोग चिकित्सकीय लापरवाही के चलते मारे जाते है।1990 से 2016 के मध्य गैर संक्रामक बीमारियों से मरने वाले भारतीयों का प्रतिशत 37 से बढ़कर 61 फीसदी हो गया है।जाहिर है भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र अगले कुछ दशकों तक एक बड़ी गंभीर चुनौती रहने वाला है।राज्य सरकारों की नाकामी और इच्छाशक्ति के अभाव में कैसे आम आदमी शोषण का शिकार हो रहा है इसका खुलासा खुद सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण में स्वयंसिद्ध है।अगर कोई व्यक्ति बुखार से पीड़ित होकर सरकारी अस्पताल में भर्ती होता है तो उसे 2845 रुपये खर्च करने पड़ते है वहीं प्राइवेट अस्पताल में यह खर्च 15513 हो जाता है।टीबी पर यह क्रमशः5949-51629,कैंसर27146-99871,रक्त सबंधी रोग3901-24080,मधुमेह 5993-28237,न्यूरो9622-44307आंख/कान 4129-18205,कार्डियो 8609-58201,श्वसन रोग4938-25621,पेट सबंधी रोग5326-33268,मसलस्केलेटल 7597-49518,प्रसूति 3811-29307,चोटें 7903-44967,अन्य बीमारी8191-39207 खर्च आता है।
एक औसत निकाला जाए तो सरकारी अस्पताल में इलाज कराने पर भारतीय नागरिक को6049 रुपये खर्च करना होते है वहीं प्राइवेट अस्पताल में यही खर्चा 34214 रिकार्ड किया गया है।सुप्रीम कोर्ट ने जिस गुजरात राज्य के निजी अस्पतालों को लेकर यह सख्त टिप्पणी की है वहाँ प्रति व्यक्ति अस्पताल में भर्ती होने पर सर्वाधिक 32502 रुपये खर्च करना पड़ रहा है।डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट के अनुसार इस मामले में यूपी के लोग सबसे कम 7242 रुपये खर्च करते है। वही बिहार में यह आंकड़ा 13626, झारखंड में 10777, बंगाल में10476, राजस्थान में 29779 रुपये है। यानी लगभग सभी राज्य अपने नागरिकों को सस्ती औऱ प्रमाणिक स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता में नाकाम साबित हो रहे है।नीतिगत स्तर पर एक गंभीर आरोप इस इंडस्ट्री को फलने फूलने के लिए लगाए जाते है।इनमें सच्चाई का अंश इसलिए साबित होता है कि सरकारी क्षेत्र में जानबूझकर ऐसे सेवा नियम बनाएं जाते है कि कोई भी चिकित्सक सरकार के साथ काम नही करना चाहता है।वेतन से लेकर सेवा संवर्ग में हर राज्य ने अलग अलग नियम बना रखे है।जूनियर डॉक्टर से लेकर विशेषज्ञ तक के लिए वेतन इतने कम है कि वे सरकारी सेवाओं में आना नही चाहते है।एक परीक्षा पास कर आईएएस अफसर आल इंडिया कैडर में मोटी तन्ख्वाह और सुविधा पाते है जबकि एकीकृत पाठ्यक्रम से विशेषज्ञ बनने वाले डॉक्टरों के लिए न कोई एकीकृत संवर्ग है न वेतन।जाहिर है हर जिले में मेडिकल कॉलेज खोलने की नीति से डॉक्टरों की संख्या तो बढ़ेगी लेकिन वे खराब नीतियों के चलते सरकारी सेवाओं में नही आयेंगे और निजी अस्पतालों में जनता शोषण का शिकार होती रहेगी।बेहतर होगा नीतिगत स्तर पर सरकारी सेवाओं को आधारभूत तरीके से समुन्नत कर डॉक्टरों को सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आकर्षक बनाया जाए।सुप्रीम कोर्ट को भी चाहिये कि वह इस बात का संज्ञान ले कि देश में स्वास्थ्य क्षेत्र को कैसे एकीकृत मॉडल पर खड़ा करने के लिए सरकारों को बाध्य किया जाए।जिन राज्यों ने क्लिनिकल एस्टबलिशमेंट एक्ट को लागू नही किया है उन्हें समय सीमा में इसे लागू करने के निर्देश जारी किए जाए साथ ही निजी क्षेत्र की तरह आकर्षक वेतन की परिस्थिति भी कायम की जाएं।

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