एक नवगीत.................!
शिवपुरी। मिट गई है जिंदगी, इस बहते पानी में। बैठकों पर बैठकें हैं, राजधानी में।
देखने आकाश से
फैली तबाही को।
नग्न लाशें, भग्न घर
मिलते गवाही को।
लौट कर कहते अधूरा सच, बयानी में।
बैठकों पर बैठकें हैं राजधानी में।
भूख से व्याकुल कहीं पर
ठण्ड से कांपें।
उड़ रहे आकाश में पर
धरा को मापें।
किंतु उठते हाथ न दिखते निशानी में।
बैठकों पर बैठकें हैं राजधानी में।
कुछ अनोखे लोग भी हैं
जो बचाते हैं।
कुछ अनोखे लोग भी हैं
जो सताते हैं।
दे रहा है सीख पानी इस रवानी में।
बैठकों पर बैठकें हैं राजधानी में।

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