प्रोफेसर दिग्विजयसिंह सिकरवार की कलम से
शिवपुरी। सनातन में देवताओं के सोने और उठने की अद्भुत और रोचक अवधारणा सदियों से हमारी परम्परा में है. आषाढ़ महीने की ग्यारस को जैसे ही 'देव' सोते हैं, वैसे ही श्रावण के महीने में 'महादेव' जाग जाते हैं. इस कालखण्ड में जब हम सब 'देवाधिदेव महादेव' की पूजा-अर्चना में लगे होते हैं, तब देवाधिदेव महादेव का विराट शिवत्व लोककल्याण के लिए हलाहल पीने, शोक, अवसाद और अभाव में भी उत्सव मनाने की प्रेरणा समूचे देश और समाज को देता है. 'देवाधिदेव महादेव' के बाद उनके पुत्र लोकमानस में लाभ, शुभ और मंगल के लोकप्रिय प्रथम पूज्य देवता के रूप में विख्यात 'श्रीगणेश जी' का अभ्युदय होता है. 'गणेश जी' का आगमन समाज में शुभता और विवेक के संचार का संदेश लेकर आता है.
'गणेश जी' के विसर्जन के बाद पूर्वजों के प्रति श्रद्धा की प्रवृत्ति सबके बीच स्थायी रूप से छोड़कर 'श्राद्ध पक्ष' जब विदा लेता है तब 'माँ जगदम्बा' नवरात्र के कालखण्ड में सम्पूर्ण सृष्टि को अपने नियंत्रण में ले लेती हैं. नवरात्र के बाद 'दशहरे' पर 'भगवान राम' का विजयोत्सव अधर्म पर धर्म की शालीन विजय की याद, उनके जीवन-मूल्यों और उनके सिद्धान्तों की याद लेकर हम सबके बीच आता है. इसके बाद 'दीपावली' पर 'माँ लक्ष्मी' की आराधना और अभ्यर्थना में पूरा देश जगमगा उठता है. दीपोत्सव के बाद कार्तिक महीने की ग्यारस को इन चार महीनों की साधना के बाद हमारी परम्परा में देव उठते हैं. देवों के सोने और उठने के बीच के इन चार महीनों के कालखण्ड में ना केवल मनुष्य बल्कि प्रकृति भी खुद को साधने का अभ्यास करती है ताकि आने वाले आठ महीनों में अपनी ऊर्जा को रचनात्मक कार्यों में लगाया जा सके.

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