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धमाका डिफरेंट: सांसारिक उन्‍नति के बिना धर्म अधूरा है: ओमप्रकाश श्रीवास्तव आईएएस

गुरुवार, 10 मार्च 2022

/ by Vipin Shukla Mama
कहा जाता है कि आज की पीढ़ी भौतिकवादी है। इसे एक बुराई के रूप में लिया जाता है परंतु जरा सोचें भौतिकता के अभाव में सैकड़ों वर्षों से दरिद्रता, भेदभाव, अशिक्षा और अंधविश्‍वास में जी रही पीढि़यॉं कौन सी आध्‍यात्मिक हो गई थीं? भौतिकवादी होना कोई बुराई नहीं है जब तक कि भौतिकवाद, धर्म (नैतिक सीमाओं) के भीतर है। वैज्ञानिक प्रगति, भौतिक विकास, समृद्धि भी धर्म का बाह्य भाग है जिसके अभाव में आंतरिक धर्म फलीभूत नहीं होता
‘धर्म’ है क्‍या? यह हमेशा से विवाद का विषय रहा है। धर्म, संसार को समृद्धिशाली, नैतिक और सुखी बनाने के लिए था परंतु विडम्‍बना है कि उसका इस्‍तेमाल सदैव से चालाक लोगों के द्वारा अपने स्‍वार्थों की पूर्ति के लिए किया जाता रहा है। धर्म की मनमानी व्‍याख्‍याओं का परिणाम है कि इतिहास के अधिकतर झगड़े और युद्ध धर्म के कारण हुए हैं। धर्म शब्‍द कहते ही आम लोगों के जेहन में जो दृश्‍य पैदा होता है वह है यज्ञ, पूजा, नमाज, प्रार्थना या किसी धार्मिक ग्रंथ का पठन-पाठन। ऐसा लगता है कि धार्मिक क्रियाऍं भविष्‍य के किसी अज्ञात लाभ के लिए हैं। धर्म को यहीं तक सीमित करके जहॉं एक ओर धार्मिक झगड़ों की नींव डाल दी वहीं दूसरी ओर समाज को वैज्ञानिक सोच और सांसारिक समृद्धि से वंचित कर दिया गया। 
भारतीय वाङ्मय में धर्म शब्द अत्यंत व्यापक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जहॉं एक ओर आत्मिक कल्‍याण के साधनों को धर्म कहा है वहीं कर्तव्‍य और दायित्‍व के लिए भी धर्म शब्‍द का इस्‍तेमाल हुआ है जैसे कार्य के आधार पर राजधर्म, सेवकधर्म, जीवन की अवस्‍थाओं के आधार पर गृहस्‍थधर्म, संन्‍यासधर्म, वंश के आधार पर आर्यधर्म, राक्षसधर्म, रिश्‍तों के आधार पर पत्‍नीधर्म, पुत्रधर्म, परिस्थिति के आधार पर आपद्धर्म आदि। सामान्‍य नैतिक नियमों को भी धर्म कहा गया है जो सभी लोगों के लिए पालन योग्‍य हैं। श्रीमद्भागवत् (11.17.21) में अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, काम, क्रोध व लोभ से बचे रहना, सदैव ऐसा प्रयास करते रहना जिससे सभी प्रणियों का हित हो आदि ऐसे ही धर्म हैं। इसी प्रकार के नैतिक नियमों को मनु ने भी धर्म कहा है (मनुस्‍मृति 6/92)। भगवान् ने जिस वस्‍तु को जिस प्रयोजन के लिए रचा है उसकी पूर्ति करना ही उस वस्‍तु का धर्म है। जैसे अग्नि का धर्म ताप देना है, चंद्रमा का धर्म है शीतलता देना आदि। गीता में जब कृष्‍ण कहते हैं कि - स्‍वधर्मे निधनं श्रेय: -अर्थात् अपने धर्म में मृत्‍यु भी श्रेष्‍ठ है तब धर्म का अर्थ है व्‍यक्ति का स्‍वभाव जो उसे प्रकृति ने स्‍वमेव दिया है न कि हिंदू, मुस्लिम, ईसाई आदि। 
धर्म की कोई सर्वमान्य परिभाषा ज्ञात करना बहुत कठिन है क्योंकि विभिन्न मतों या विचारों को माननेवाले अपने-अपने सिद्धांतों के अनुसार विभिन्न कार्यों को धर्म कहते हैं। नास्तिक दर्शन, जैसे चार्वाक-दर्शन, आत्मा-परमात्मा को नहीं मानता। उसके लिए प्रत्यक्ष दिखनेवाला संसार ही सत्य है। इसलिए जिस कर्म से संसार में उन्नति हो उनके लिए वही धर्म है। बुद्ध दर्शन के अनुसार अहिंसा और निर्वाण प्राप्ति के उपाय धर्म हैं। सांख्यदर्शन के प्रणेता कपिल ने कहा है कि जिस कर्म से अन्तःकरण में वैराग्य, शान्ति और विवेक का उदय हो वही धर्म है। योगदर्शन के प्रणेता पातञ्जलि कहते हैं कि वह कर्म जो मनुष्य की वृत्ति को समाधि के उपयुक्त बनाकर आत्मस्वरूप में स्थित कराते हैं वही धर्म हैं। पूर्व मीमांसा के प्रणेता जैमिनी ने वेदों में वर्णित यज्ञ, याज्ञ आदि को ही धर्म बताया है। वेदान्त दर्शन के प्रणेता महर्षि वेदव्यास के अनुसार ऐसे कर्म जो अन्तःकरण की शुद्धि करते हैं, धर्म हैं। 
धर्म की सबसे क्रांतिकारी परिभाषा वैशेषिक दर्शन के प्रणेता महर्षि कणाद ने दी है। उन्होंने धर्म को आत्मा के साथ ही संसार से भी जोड़ दिया। उनके अनुसार ‘यतोsभ्‍युदयनि:श्रेयससिद्धि: स धर्म:’ अर्थात् जिस कर्म से मनुष्य का अभ्युदय अर्थात् इस जगत् में उन्नति होती है तथा अंत में निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष या मुक्ति की प्राप्ति होती है वही धर्म है। सनातन धर्म के अनुसार जीवन का परमलक्ष्य ‘मोक्ष‘ है जिसके लिए आध्यात्मिक उन्नति आवश्‍यक है। आध्‍यात्मिक उन्‍नति के साधन जप, तप, पूजा, यज्ञ आदि तभी संभव हैं जब भोजन, वस्‍त्र, आवास उपलब्‍ध हों, शरीर स्‍वस्‍थ हो और समाज में कानून और न्‍याय का शासन हो। कहा जाता है कि ‘भूखे भजन न होय गोपाला’। महाभारत में सर शैय्या पर पड़े भीष्‍म ने कहा था कि शारीरिक कष्‍ट के कारण उन्‍हें धर्मतत्‍तव का स्‍मरण नहीं हो रहा है। स्‍पष्‍ट है कि सांसारिक अनुकूलताऍं धर्म पालन में सहायक हैं।
इस प्रकार धर्म के दो भाग हैं - वाह्य जो सांसारिक प्रगति से और आंतरिक जो आत्मिक प्रगति से संबंधित है। धर्म रूपी रथ के यह दो पहिये हैं। यदि सांसारिक प्रगति और समृद्धि नहीं होगी तो रथ चल नहीं पाएगा। वैदिक भारत में धर्म का समन्वित रूप प्रचलन में था इसलिए संसार से संबंधित विज्ञान व कलाऍं जैसे गणित, आयुर्वेद, स्‍थापत्‍य, व्‍याकरण, नाट्य, खगोलविज्ञान, अस्‍त्र-शस्‍त्र, युद्धकला आदि का विकास हुआ। बाद में भारत में केवल आत्‍मतत्‍त्‍व पर जोर देने और जगत को मिथ्‍या मान लेने से हजारों वर्षों से सांसारिक समृद्धि व वैज्ञानिक प्रगति में देश पिछड़ता गया । जिसका परिणाम देश में बड़े स्‍तर पर दरिद्रता, अशिक्षा, भेदभाव और नैराश्‍य के रूप में सामने आया। इस बीमारी को स्‍वामी विवेकानन्‍द ने ठीक से पहचाना और कहा कि युवाओं को जरूरी है कि वे गीता पढ़ने से पहले फुटबाल खेलना सीखें। उन्‍होंने ही कहा था कि आज देश को केवल कर्मयोग, कर्मयोग और तीव्रतम कर्मयोग की आवश्‍यकता है। 
सनातन धर्म में जीवन पाप का परिणाम नहीं है न ही निंदनीय है। वेद तो संसार के समस्‍त मानवों को अमृत के पुत्र कहते हैं – श्र्णवन्‍तु विश्‍वे अमृतस्‍य पुत्रा:। जीवन तो परमचेतना का साक्षात्‍कार करने के लिए है परंतु इस प्रक्रिया में संसार के सुख त्‍याज्‍य नहीं हैं। जीवन के चार पुरुषार्थ बताते हैं कि हमें धर्म से यात्रा प्रारंभ करके अर्थ और काम से होते हुए मोक्ष तक ले जाना है। सांसारिक सुखों का उपयोग धर्म की मर्यादाओं के बीच करना है। गीता में कृष्‍ण ने धर्म की मर्यादा के भीतर काम को भी अपना रूप कहा है – धर्माविरुद्धो कामेषु भूतेषु भरतर्षभ। रामचरित मानस में मनु शतरूपा को वरदान देते हुए कहा है कि संसार में ऐसे सुख भोगो जो देवताओं को भी दुर्लभ हैं और अंत में ईश्‍वर के धाम में जाओ – सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं। अंतकाल रघुबरपुर जाहीं। वेदों में निरंतर स्‍वस्‍थ, समृद्धिशाली, ऐश्‍वर्ययुक्‍त जीवन की कामना की गई है। भगवान् का तो अर्थ ही है जो ऐश्‍वर्य से युक्‍त हो। 
कहा जाता है कि आज की पीढ़ी भौतिकवादी है। इसे एक बुराई के रूप में लिया जाता है परंतु जरा सोचें भौतिकता के अभाव में सैकड़ों वर्षों से दरिद्रता, भेदभाव, अशिक्षा और अंधविश्‍वास में जी रही पीढि़यॉं कौन सी आध्‍यात्मिक हो गई थीं? भौतिकवादी होना कोई बुराई नहीं है जब तक कि भौतिकवाद, धर्म (नैतिक सीमाओं) के भीतर है। वैज्ञानिक प्रगति, भौतिक विकास, समृद्धि भी धर्म का बाह्य भाग है जिसके अभाव में आंतरिक धर्म फलीभूत नहीं होता। धर्म को केवल आंतरिक जगत का हिस्‍सा मान लेना और बाहरी जगत से विमुख हो जाना हमारे पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण है। सड़कों पर अर्धशिक्षित, धार्मिक नारे लगाते, यात्राऍं निकालते, अर्धशिक्षित, बेरोजगार, धर्मांध युवक कहीं भी दिख सकते हैं। इन्‍हें समझाया जा रहा है कि यही धर्म है। धर्म की यह व्‍याख्‍या आज का सबसे बड़ा संकट है। इससे कुछ लोगों के लिए सत्‍ता का पथ भले ही प्रशस्‍त हो जाए परंतु यह युवा धर्म से उतनी ही दूर होते जा रहे हैं। 
युवाओं को अच्‍छी शिक्षा देना, कौशल प्रदान करना, उन्‍हें उत्‍साही और कर्मयोगी बनाना, उनमें वैज्ञानिक सोच का विकास करना ताकि वे ऐश्‍वर्यपूर्ण और समृद्धिशाली जीवन जी सकें, भी धर्म का ही भाग है। जब ज्ञान होगा तभी विद्यादान कर पाऍंगे, जब धन कमाऍंगे तभी जरूरतमंदों को मदद कर पाऍंगे, जब शरीर स्‍वस्‍थ होगा तभी तप कर पाऍंगे। अर्धशिक्षित, संकीर्ण सोचवाले, कौशलविहीन, अंधविश्‍वास में डूबे लोगों के धर्मरथ का अभ्‍युदय (सांसारिक समृद्धि) रूपी पहिया तो टूटा ही है, तब रथ चलेगा कैसे ? धर्म की सही व्‍याख्‍या ही देश का भविष्‍य उज्‍जवल कर सकती है। देश के विचारकों, धर्माचार्यों, साधु-संतों के कंधों पर इस दिशा में कुछ करने की बड़ी जिम्‍मेदारी है। 
 धर्म और धार्मिक क्रियाओं के बीच वही सम्‍बन्‍ध है जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बीच है
कितनी विचित्र बात है कि संसार में सबसे ज्‍यादा युद्ध धर्म के कारण हुए हैं और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का सबसे ज्‍यादा विकास युद्धों के कारण हुआ। परंतु फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि विज्ञान का विकास धर्म के कारण हुआ है। सामान्‍य रूप से धर्म और विज्ञान को परस्‍पर विरोधी माना जाता है। धर्म को विश्‍वास (और कभी-कभी अंधविश्‍वास भी) और विज्ञान को तर्कयुक्‍त माना जाता है। विज्ञान का परिणाम सभी को एक जैसा दिखता है। मोबाइल फोन पर सभी बात कर सकते हैं चाहे वह उसकी आंतरिक तकनीकी समझते हों या नहीं। सीटी स्‍कैन मशीन आस्तिक-नास्तिक, मूर्ख-विद्वान, स्‍त्री-पुरुष, अफ्रीकी-अमेरिकी सभी के शरीर के अंदर का चित्र निकालकर दिखा देगी। विज्ञान विश्‍वास का विषय नहीं है, वह भौतिक रूप से पॉंच ज्ञानेन्द्रियों से अनुभव करने का विषय है। इसलिए विज्ञान को लेकर कभी विवाद नहीं होता। पूरे संसार का विज्ञान एक सा है।
विज्ञान के नियम सृष्टि में स्‍वमेव पैदा हुए हैं। वैज्ञानिक उनकी खोज करते हैं, आविष्‍कार नहीं करते। आविष्‍कार तो प्रौद्योगिकी का करते हैं जो विज्ञान के नियमों का व्‍यवहारिक जीवन में उपयोग करती है। गुरुत्‍वाकर्षण के नियम की खोज के पहले भी पेड़ पर लगा फल टूटकर भूमि पर ही गिरता था, ग्रह, नक्षत्र और पिंड आपस में आकर्षित होते थे। सापेक्षता के नियम की खोज के पहले भी पदार्थ और ऊर्जा आपस में बदल सकते थे। इस खोज के बाद हमने उसका उपयोग कर आणविक ऊर्जा का आविष्‍कार कर लिया। सृष्टि में विद्युत चुम्‍बकीय तरंगों का अस्तित्‍व तो सदैव से है परंतु जब इनकी खोज की और उनके उपयोग की प्रौद्योगिकी विकसित की तो रेडियो, टीवी और मोबाइल जैसे आविष्‍कार हो सके। यदि तृतीय विश्‍वयुद्ध में सारी मानवता नष्‍ट हो जाए तो उसके साथ प्रौद्योगिकी भी नष्‍ट हो जाएगी परंतु संसार में विज्ञान के नियम यथावत कार्य करते रहेंगे।
धर्म के साथ मामला पेचीदा हो जाता है। अंग्रेजी में जिसे रिलीजन कहा जाता है उसकी समझ दुनिया के भौगोलिक क्षेत्र, वहॉं के समाज, अर्थव्‍यवस्‍था आदि के साथ विकसित हुई है। यह विश्‍वास का मामला है। इसलिए दुनिया के तीन बड़े रिलीजन ईसाई, इस्‍लाम और यहूदी में विश्‍वास करना ही महत्‍वपूर्ण है। उनकी एक पवित्र पुस्‍तक है, ईश्‍वर का संदेश लाने वाले एक दूत हैं। पुस्‍तक में जो लिखा है और ईश्‍वर के संदेश में जो कहा गया है वह अंतिम सत्‍य है, उस पर विश्‍वास करना ही होगा। भारत का हिन्‍दू या सनातन धर्म इस मामले में भिन्‍न है क्‍योंकि यहॉं विश्‍वास का स्‍थान बहुत सीमित है। यहॉं अनुभव और सत्‍य का दर्शन ही प्रमाण है। अनुभव और दर्शन तो उसी का होगा जो अस्तित्‍व में है। किसी के कहने से उसे बदला नहीं जा सकता। इसलिए हमारे चारों ओर जो अस्तित्‍व हमें घेरे है उसके स्‍वभाव को ही धर्म कहते हैं। जैसे विज्ञान स्‍वयं उद्भूत है और पूरे संसार में एक सा है वैसे ही अस्तित्‍व का स्‍वभाव भी स्‍वयं उद्भूत है, सदैव से था, सदैव ऐसा ही रहेगा और पूरे ब्रह्माण्‍ड में एक सा है। पर यह अस्तित्‍व है क्‍या ?
इस अस्तित्‍व को ऐसे समझें कि, संसार में जो कुछ भी है उस सभी में चेतना है। गीता में भगवान् कृष्‍ण कहते हैं संसार के सभी जीवों में मेरा ही अंश विद्यमान है (15.7)। यही अंश चेतना है, इसी से सारी सक्रियता है। विभिन्‍न रूपों में उस चेतना के स्‍तर में अंतर है। कहीं ज्‍यादा है कहीं कम। पत्‍थर में चेतना सुषुप्‍त है, पौधे में कुछ जाग्रत है, जीव-जन्‍तुओं में और ज्‍यादा सक्रिय है और मानव में उससे भी ज्‍यादा। जहॉं चेतना होती है वह अपने को अभिव्‍यक्‍त करती ही है। चेतना सुषुप्‍त होने के कारण पत्‍थर तोड़े जाने का विरोध नहीं करता, परंतु पौधा काटे जाने पर पीड़ा के चिह्न प्रकट करता है, और चींटी तो प्रतिरोध करेगी और अपनी जान बचाने का भरसक प्रयत्‍न करेगी। चेतना का ज्ञान बुद्धि से होता है। परंतु ज्ञान होना और अनुभव होना दो अलग बातें हैं। हम उपनिषद पढ़कर बौद्धिक रूप से ‘अहं ब्रह्मास्मि’ मान लेंगे परंतु यह अनुभूति नहीं है, मात्र जानकारी है। धर्म का उद्देश्‍य है कण-कण में इस चेतना का अनुभव कराना, दर्शन कराना। इस अनुभव के बाद संसार का रूप ही बदल जाता है। तुलसीदासजी को सारा संसार ‘सियाराममय’ दिखने लगाता है तो कबीरजी को ‘इस घट अंतर अनहद गरजै’ सुनाई देने लगता है।
अब इस अस्तित्‍व का स्‍वभाव देखें। यह बगैर प्रतिफल की आशा किये निरंतर दे रहा है। सूरज प्रकाश दे रहा है, बादल पानी दे रहे हैं, वायु प्राण दे रही है। सब दूसरों के हित में त्‍याग कर रहे हैं। कोई अपने पास कुछ संग्रह नहीं कर रहा। वृक्ष अपनी सारी ऊर्जा बीज बनाने में लगा रहा है ताकि नए वृक्ष और फल संसार को मिल सकें। पूरा अस्तित्‍व अपरिग्रही है। कुछ भी स्‍थाई नहीं है। जो बन रहा है वह अगले ही क्षण किसी अन्‍य रूप में बदल रहा है। सब कुछ अनित्‍य है। जीवन-मृत्‍यु निरंतर चल रहे हैं। सब कुछ शांत है। न पुष्‍प कुछ बोलता है न चॉंदनी। बोलना केवल बाह्य क्रिया है आंतरिक नहीं। पूरे अस्तित्‍व में सब कुछ नियमबद्ध है, सहज है, सरल है। सूर्य समय पर निकलेगा, कमल भोर होते ही खिलेंगे आदि। ऐसा नहीं हो सकता कि कमल अचानक रात में खिलना तय कर लें। इसमें धोखे की कोई गुंजाइश नहीं है। मृत्‍यु है पर अकारण हिंसा नहीं है। शेर भूखा होने पर ही शिकार करता है। शेर का पेट भरा हो तो वह हिरण की तरफ ऑंख उठाकर भी नहीं देखता। अस्तित्‍व मूलत: अहिंसक है।    
आप जितना विचार करते जाएँगे तो पाऍंगे कि अस्तित्‍व का स्‍वभाव ही त्‍याग, अपरिग्रह, सत्‍य, मौन, सरलता, अहिंसा आदि हैं। यही धर्म के अंग हैं। इनका कोई विकल्‍प नहीं हो सकता क्‍योंकि यह विज्ञान की तरह स्‍वमेव सृष्टि में उद्भूत हुए हैं। इसलिए अस्तित्‍व या चेतना का साक्षात्‍कार करना है तो इन्‍हीं नियमों पर चलना होगा।
धर्म के दो भाग हैं सैद्धांतिक और प्रायोगिक। सैद्धांतिक भाग तो उपनिषदों में 5 महावाक्‍यों के रूप में व्‍यक्‍त किया गया है - अहं ब्रह्मास्मि (मैं ब्रह्म हूँ), तत्त्वमसि (वह ब्रह्म तू है), अयम् आत्मा ब्रह्म (यह आत्मा ब्रह्म है), प्रज्ञानं ब्रह्म (प्रकट ज्ञान ही ब्रह्म है) और सर्वं खल्विदं ब्रह्म (सर्वत्र ब्रह्म ही है)। धर्म के प्रायोगिक भाग में प्राचीन महापुरुषों ने विभिन्‍न प्रकार की धार्मिक प्रक्रियाओं का विधान किया है जो अस्तित्‍व के स्‍वाभाविक गुणों पर आधारित हैं। मूर्तिपूजा से लेकर व्रत, तप, योग, यज्ञ, ध्‍यान आदि प्रक्रियाओं का उद्देश्‍य आंतरिक शुद्धता बढ़ाकर कण-कण में चेतना का अनुभव करना है। इन प्रक्रियाओं को हम धर्म की प्रौद्योगिकी कह सकते हैं।
जिस प्रकार प्रौद्योगिकी तभी सफल होगी जब वह विज्ञान के नियमों के अनुसार होगी। उसी तरह धार्मिक क्रिया तभी सार्थक होगी जब वह धर्म के अनुरूप होगी। सही धार्मिक क्रिया हमारे अंतर को परम चेतना या अस्तित्‍व के स्‍वभाव के अनुरूप ढ़ालती है। जब हमारे अंदर भी अस्तित्‍व जैसे गुण पैदा हो जाते हैं तब हम में और अस्तित्‍व में अंतर समाप्‍त हो जाता है। बीच का पर्दा गिर जाता है और यही साक्षात्‍कार की अवस्‍था है जो धर्म का उद्देश्‍य है। कल्‍पना करें ऐसे मोबाइल की जिसमें सिम न हो तो वह मोबाइल बच्‍चों का खिलौना होगा जिससे वे फोन करने का ढ़ोंग कर सकते हैं पर बातचीत नहीं कर सकते । इसी प्रकार जो कथित धार्मिक क्रिया हमारे अंदर अस्तित्‍व के मूल स्‍वभाव जैसे -  सत्‍य, अहिंसा, अपरिग्रह, आस्‍तेय, क्षमा, धैर्य, अक्रोध आदि - को समृद्ध न कर सके वह पाखंड होगी। अंतर केवल इतना है कि विज्ञान पॉंच ज्ञानेन्द्रियों से अनुभूत होता है जो हम सभी के पास हैं इसलिए कोई प्रौद्योगिकी कार्य कर रही है या नहीं यह सबको पता चल जाता है। धर्म की प्रक्रिया आंतरिक शुद्धीकरण करती है जि सका पता स्‍वयं हमें ही ईमानदार अंतरावलोकन से चल सकता है। दूसरा इसे नहीं समझ सकता। इसलिए धर्म की प्रौद्योगिकी में धोखे की भरपूर संभावनाऍं हैं और आजकल तो धर्म के नाम पर यही बहुतायत में चल रहा है। ऐसी स्थिति में आपका विवेक और ईमानदार अंतरावलोकन ही आपको सही मार्ग दिखा सकता है।
(opshrivastava@ymail.com)
ओमप्रकाश श्रीवास्तव
आईएएस अधिकारी एवं
धर्म, दर्शन और साहित्य के अध्येता

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