प्रत्येक गुणवान व्यक्ति या समय - समय पर इस धरा पर जन्म लेने वाले महान समाज सुधारकों में कार्य करने की एक विशिष्ट शैली होती है, जिस पर उन्हें पूरा विश्वास होता है, किन्तु यह आवश्यक नहीं है कि उनके द्वारा किए जा रहे सामाजिक या व्यवस्था सुधार के तरीकों से प्रत्येक व्यक्ति संतुष्ट होता हो।हर व्यक्ति अपनी सोच को सामने वाले व्यक्ति पर थोपना चाहता है यदि उसकी सोच का मिलान सुधारक की सोच से नहीं मिलता तो फिर निश्चित ही सुधारक को आलोचना का शिकार होना पड़ता है। यह वास्तव में कितना झकझोरता है सुधार के लिए खड़े हो प्रयास करने वाले को।
यह नीति विरुद्ध है कि एक तो हम निकम्मे हो कुछ भी करने को तैयार नहीं है और कुछ अच्छा हो रहा हो तो समर्थन देने की हिम्मत भी नहीं करते । जब हम कुछ कर नहीं सकते तो फिर क्यों किसी जागरूक द्वारा किये जा रहे प्रयासों की गलत समीक्षा करते हैं वो भी उस व्यक्ति के प्रयासों का अर्थ समझे बिना। ठीक उसी प्रकार हम व्यवहार करते है जिस प्रकार नदी में डूबते हुए बिच्छू को बचाने के लिए संत जितनी बार अपना हाथ उसके पास ले जाता है वह उन्हें काटता है और यह प्रक्रिया वैसे ही चलती रहती है । न तो बिच्छू अपनी क्रूरता छोड़ता और न संत अपना दयाभाव।इसी प्रकार सुधारक अनेकों आलोचनाओं को सहते हुए भी अपना कार्य संत समान करते हैं। यह तो हमारी योग्यता पर निर्भर करता है हम किसी व्यक्ति या वस्तु से क्या प्राप्त कर सकते हैं एक उदाहरण यह बात स्पष्ट करेगा -
यह उपयोगकर्ता की समझ का परिणाम है कि वह 40 रू. प्रति लीटर मूल्य के दूध से क्या प्राप्त करना चाहता है ? वह यदि सकारात्मक सोच रखता हैअर्थात् किसी वस्तु के उच्च गुणों को प्राप्त करना चाहता है तब वह उस 40रू. मूल्य के दूध से 100 रू किलो का दही, 150 रू का पनीर, 250 रू का मावा या फिर 600 रू किलो का घी तक प्राप्त कर सकता है । यह उसकी लेने की क्षमता पर निर्भर करता है, और बुराईयाँ खोजने वाला व्यक्ति अच्छे गुणों में भी अवगुण खोजता है। वह मूल्यवान का भी मूल्य कम कर सकता है जैसे वह 40 रू मूल्य के दूध का छाछ बना उसका मूल्य 10 रू प्रति लीटर कर दे।
एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते हमें चाहिए कि यदि हम कुछ अच्छा सोचते हैं जो राष्ट्र व समाज के लिए हितकर है और यदि कोई अन्य उसी समान विषय पर कार्य कर रहा है और उसके द्वारा किए जाने वाले कार्यों में किसी प्रकार का सुधार आवश्यक है जिससे वह विषय और सरल हो कर राष्ट्र व समाज के लिए कल्याणकारी हो सकता है तब हम उस सुधारबिन्दु को उसी महानुभाव के समक्ष रखें जो उस विषय पर कार्य करना आरंभ कर चुका है बजाय इसके कि हम हर सामान्य व्यक्ति के सामने यह शेखी बघारें कि मैं होता तो यह कर देता ।
इससे वैमनस्यता की स्थिति निर्मित होगी जो उस सुधार कार्य के समर्थक नहीं नासमझ विरोधी तैयार करेगी, जो राष्ट्र के लिए घातक है और यदि सुधारक इस बात से टूट गया तो वह प्रयास रूक जायेगा और न जाने फिर कब सुबह होगी? इसका दुष्परिणाम आज देखा जा रहा है, उदाहरण के लिए हमारा स्वतंत्रता आंदोलन -महात्मा गांधी का अहिंसक तरीका स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अपार जन समूह एकत्र कर सका। लोगों में एक ललक लाया, जिसने सत्याग्रह का सहारा ले, दबी कुचली मानसिकता ( कि ब्रिटिश को हम नहीं हरा सकते ) को बदला तथा आज़ादी की लड़ाई में हर आमोख़ास को जोड़ दिया जो उस समय आवश्यक था।
वहीं हमारा एक दूसरा वर्ग क्रांति अर्थात् तेजी से परिवर्तन का समर्थक बना बलिदानी बिरासत का पुनः सूत्रपात हुआ। इन महानायकों के बलिदान से युवा वर्ग के ख़ून में उबाल आया व आंदोलन को एकआधार मिला यह कार्य नियति द्वारा दो अलग-अलग माध्यमों से किया जाना सुनिश्चित ही था जिसने हमारे समक्ष दो सुदृढ़ विकल्प दिये कि किसी भी नीतिगत सच्चे माध्यम से प्रयास करो विश्वास की मज़बूती होना सफलता की तिथि व समारोह तय करता है और इस दूसरे माध्यम के ध्वज वाहन बने लाल-बाल-पाल ,आज़ाद -भगत -सुभाष आदि पर दुर्भाग्य ने साथ न छोड़ा व पैदा हो गए समीक्षक, अपने विचारों को सुदृढ़ तरीके से थोपने वाले विद्वान। इन राष्ट्र भक्तों के प्रति धन्यवाद देना तो दूर, शुरू कर दिया इनके कार्य करने के तरीकों में कमी निकालना और फिर खो गयी राष्ट्रीयता की सोच।
मेरी सोच से प्रत्येक राष्ट्रवादी ने तात्कालिक परिस्थितियों में जो उचित लगा किया और उनके प्रयास सार्थक रहे। राष्ट्र स्वतंत्र हुआ, आज़ादी आयी पर समीक्षक व मूर्ख विद्वान कम न हुए हर दिन एक नया पैदा होता गया। गांधीजी को क्रांतिकारियों के विरूद्ध खड़ा कर दिया और क्रान्तिकारियों को गांधीजी के विरुद्ध, वो भी बिना उनके मन्तव्य को समझे।
इसलिए शायद आज देश भी राष्ट्रभक्तों को पैदा नहीं कर पा रहा, कारण समीक्षकों ने राष्ट्रभक्तों के दो घरानों का निर्माण जो किया एक "गांधी घराना" दूसरा "क्रांतिकारी घराना"
अर्थात् दो धारायें जिनकी दिशा अलग पर मंजिल एक। नयी पीढ़ी भ्रमित हो गई एक धारा की पूजक व दूजी धारा की आलोचक स्वतः ही बन गयी ।
काश! लोग इनके मन को पढ़ सकते और इनके मध्य हुए वार्तालाप का सही अर्थ समझते तो इन महापुरुषों के चरित्रों का अनुसरण कर एक राष्ट्रप्रेमी तैयार होता जो गांधी जी के विचारों का धनुष और क्रांतिकारियों के बलिदानों से अभिमंत्रित तीर को, राष्ट्रधर्म का प्रण ले, देशद्रोहियों को लक्ष्य बनाता तो हर भारतीय एक राष्ट्रप्रेमी अर्जुन और हर देशद्रोही पक्षी की आँख होता तब निश्चित ही लक्ष्य भेदा जाता और एक विवाद जन्म न ले पाता कि "आज़ादी किसने दिलाई ?"
@नितिन भारद्वाज

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