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धमाका खास खबर: अब जगी पथराई आंखों में उम्मीद: ध्रुवउपमन्यु

बुधवार, 24 अगस्त 2022

/ by Vipin Shukla Mama
शिवपुरी। अब जबकि कूनो पालपुर सेंचुरी में अफ्रीकी चीते आने के तैयारी अंतिम चरण में है। दिमाग किसी चल चित्र की भांति स्मृतियों में चल गया। हमारे  लिए माधव राष्ट्रीय उद्यान और कूनो दोनों ही बचपन के साथियों की तरह है। वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर और लेखक पिता हरि उपमन्यु के सहायक के तौर पर मैंने दोनों जगह कई बार जंगल की यात्राएं की है। जब कूनो के नए मेहमान के लिए ग्रामीण अपना सब कुछ छोड़ते हुए विस्थापन का दर्द झेल रहे थे तब लोगों की पीड़ाओं  को हमने करीब से देखा है। हालांकि पापा इन गुजराती मेहमानों की खुराक का चित्रण करने के लिए जाते थे पर उस समय सरकार की यह भी मांग थी कि क्या ग्रामीणों के विस्थापन का उचित तरीके से क्रियान्वित हो रहा है या नही, उसको हमें दृश्य और शब्द दोनों माध्यम से उतारना भी था। तब लोगों के बिखरते घरों को देखना कष्टकारी लग रहा था लेकिन उनको मिल रही सुविधाएं मन को राहत पहुंचा रही थी। ये लोग वियावन जंगल में बिना किसी सड़क विजली और चिकत्सा सुविधा के साथ रह रहे थे। मीलों तक न सड़क थी न ही आवागमन के साधन। बेलगाड़ियों से बीमार और गर्भवती महिलाओं की दुश्वारियों की इतनी कहानी सुनी थी कि इनके नए घर में मिलने वाली चिक्तिसीय सुविधाओं ने बहुत राहत प्रदान की। स्कूल और पीने के पानी के भी बेहतर प्रबंध किए गए थे।
कूनो का जंगल बहुत ही समृद्ध शाली है यहां की भौगोलिक स्थिति सिंहों की वसाहट लिए अनुकूल है। विस्थापन का काम 2003 के आसपास पूरा हो चुका था और लोग इन मेहमानों के लिए खुद मेहमान बन गए थे अपना सब कुछ छोड़ कर चले गए जिसमें इनकी आत्मा बस चुकी थी। इन जंगलों को स्वतंत्र छोड़ लोग  अपने नए आवास में इसलिए चले गए ताकि इकोसिस्टम का शिखर पुरुष  यहां पर विराजित हो सके । कोई चार साल बाद जब मैंने पुनः  कूनो की यात्रा की तब यहां पर एशियाटेक लाइन के एक जोड़े को लाने की पूरी तैयारी हो चुकी थी  किसी पेड़ की पत्ती को जैसे इल्ली खा ले ऐसी आकृति है कूनो के जंगल की । इस  समृद्ध जंगल  के बीच में  पालपुर रेस्ट हाउस की शोभा देखते ही बनती है पालपुर के राजा साहब की कोठी को भी मुआवजा दिया गया है और इसके  पास ही वन विभाग ने अपना रेस्ट हाउस बनवा लिया है। जब कुछ वर्ष पहले मैं पापा के साथ यहां आया था तो सोलर एनर्जी से  वायर लेस की बैटरी चार्ज होती थी । पर अब जब दूसरी बार मैं अपने पर्यावरण प्रेमी मित्रों के साथ यहां गया था  तब डीजल का जनरेटर रखा हुआ था। सांझ के ठीक पहले हम रेस्ट हाउस के समीप पहुंच रहे थे तो नीलगाय चीतल और स्पॉटेड डियर के साथ हमें हजारों गाय भी देखी यह विस्थापित हो चुके ग्रामीणों के पालतू जानवर थे जो अपनी  इस जगह को छोड़ने को तैयार  नहीं थी ।तत्कालीन डीएफओ चौहान साहब के मुताबिक ग्रामीणों इन्हे अपने साथ तो ले गए थे पर ये जानवर नई जगह रहने को तैयार नहीं थे । चौहान सा के अनुसार  जब ये यहां रह ही गए हैं तो  ये हमारे नए मेहमानों का प्रेबेस का हिस्सा  बनेंगे ।
कूनो  रेस्ट हाउस एक पर्वत पर स्थित है इसके ठीक नीचे जीवनदायिनी कूनो नदी बह रही है नदी के उस पार जुरासिक पार्क सा शानदार जंगल दिखता है  धुंधलके में जब मद्धम हवा और  चांदनी की रोशनी में  अंग्रेजों के जमाने की डाइनिंग टेबल पर हम खाना खा रहे थे तब हमें रेंजर साहब ने  बताया कि उस जगह जहां नदी ने अंग्रेजी के अक्षर एस की तरह मोड़ दिया है वहां पर चंद दिन पहले पुलिस और डकेतों के बीच गोलीबारी हो रही थी  रेंजर साहब के अनुसार मारा तो कोई नहीं गया। पर इस वाकिए ने  मेरे मित्रों को सहमा दिया हमारे डिनर के खत्म होते ही डीएफओ वहां से विदा हो गए। वहां से जाने के पहले इस विशाल जंगल  में रह कर पीएचडी कर रहे एक समर्पित जीव विज्ञानी से  हमे मिलवा गए क्या शानदार जानदार समर्पित इंसान हैं फैय्याज खुदसर। फैय्याज आज कल दिल्ली में  यमुना बायो डायवर्सिटी में सीनियर साइंटिस्ट है। फैय्याज से यह मुलाकात मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण  थी वह तत्काल इतना प्रभावित नहीं कर पाए लेकिन जैसे-जैसे वक्त बीतता गया वह हमारे लिए सम्मानीय होते गए मेरे मन में पर्यावरण के प्रति जो अनुराग है उसमें फैयाज की भूमिका को कभी नहीं भुला सकता ।यदि आज फैयाज के बारे में लिखूंगा तो शायद मेरी लेखनी विराम नहीं लेगी ।  हम कूनो  में जिस जगह थे उस जगह से चालीस से पचास  किलोमीटर तक चारों तरफ किसी भी शहरी सड़क और शहरी जानवर से कोई वास्ता नहीं था। मोबाइल तो उस समय थे नही। हमारे पर्यावरण प्रेमी मित्रों के उस वक्त होश फाख्ता  हो गए जब उहोंने इस वात को गौर से सोचा की मीलों तक यहां कोई सुनने वाला नहीं ।  हमारे मित्र लगभग फस चुके थे मरता क्या न करता उन्होंने भय और रोमांच  के बीच और रात जंगली जानवरों की आवाजों के  इस अनूठे मिश्रण का रास्वादन किया। कूनो का  हैबिटेट जितना समृद्ध शाली है  यहां पर  उन दिनों उतनी ही संख्या में असामाजिक व्यवस्था के शिखर पुरुष यानी  डकैत भी मौजूद थे और उनके लिए भी यह अभ्यारण्य था।  सेंचुरी में विस्थापन के पहले इंसानी बसाहट थी तब यहां पर रमेश सिकरवार जैसी डकैतों की आवाजाही रही है। जंगलों की रक्षा में जितना बड़ा योगदान शेरों का रहा उससे कम और  नकारात्मक ही सही पर बड़ी भूमिका डकैतों की भी रही है।  ये उत्पाति जंगल को  नुकसान नहीं पहुंचाते थे और ना ही जंगल के गार्ड इन रक्षकों की पोल खोलते थे। उन दिनों  एक  फारेस्ट गार्ड का  सामना गडरिया गिरोह  से हो गया था। चंबल के इन दो पैर वाले  शेर के आकस्मिक दर्शन का भुगतान  उन्होंने अपनी पिटाई करवा कर चुकाया था। जब से जंगल से डर खत्म हुआ हैं तब से जंगलों में इंसानों का दबाव बढ़ा है, और धीरे-धीरे जंगल गायब भी होने लगे, शिकारी भी बिना भय  के जंगलों में घूमने लगे थे।इस एरिया में जंगल के राजा के दर्शन तो  होते नही पर  हम बिल्ली प्रजाति के दूसरे सदस्यों की उपस्थिति से ही धन्य हो जाते है।
गडरिया गिरोह  के खात्मे के बाद कूनो में कुछ शिकारी  घूम रहे थे तब कुछ साहसी वन कर्मियों  से उनका आमना सामना हो गया था  और इस मुठभेड़ में शिकारियों ने एक वीर सपूत को हमसे छीन लिया था ।कूनो  में शिकारियों द्वारा वन्य प्राणी और उसके रक्षक के शिकार की इस घटना ने सभी लोगों को हैरत में डाल दिया था।
गुजरात से सिंहो को लाने की महत्वपूर्ण परियोजना में क्या कमी रही इसकी विवेचना तो दिल्ली और प्रदेशों की राजधानी की एयर कंडीशनर ऑफिस में बैठे विशेषज्ञ करेंगे पर हम जैसे लोगों के लिए बात सुखद रही कि अब अफ्रीकी चीते यहां आ रहे हैं।
इस योजना में देरी की वजह से सिंह के लिए उपयुक्त यह  घास के मैदान आज जंगल में तब्दील हो गए  हैं। सवाल यह है की चीतों के लिए भी वही घास के मैदान चाहिए जो उनके  शिकार के लिए उपयुक्त है। दूसरा सवाल ये है कि चीतों के लिए प्रेवेस का हिस्सा बनने वाले चिंकारा इन जंगलों की वजह से बहुत कम हो गए हैं। यह बड़ा महत्वपूर्ण विषय है की चीते शिकार किसका करेंगे मोरों का या खरगोशो का,  दूसरी ओर घास के मैदान गायब हुए तो यहां पर तेंदुए की संख्या बहुत बढ़ गई है हालाकि वन विभाग इकलेमेटाइज जोन में से तेंदुओं को निकालने का काम कर रहा है जहां प्राथमिक तौर पर कुछ चीते शिफ्ट किए जाएंगे। 
 इस कूनो को जंगल जैसा संवारने में बहुत से बन अधिकारियों, फारेस्ट रेंजर और गार्डों ने अपना योगदान दिया है। कुछ वन कर्मियों ने अपनी जान भी कुर्वान की है और सबसे बड़ा दर्द सहा विस्थापितों ने उनके पालतू जानवरों ने जो आज अपने नए घरों के  आंगन में जंगल के शिखर प्राणी के साथ चीतों  के लिए  भी प्रार्थना करते है कि  तुम जल्दी से  आ जाओ। जैविक सूत्र इको फार्म।
ध्रुवउपमन्यु, शिवपुरी
लेखक, फोटोग्राफर, पर्यावरणविद

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