Dhamaka Exclusive: Remembered Makar Sankranti, forgot Vedic Uttarayan festival: Brajendra Srivastava
जिस उत्तरायण पर्व की प्रतीक्षा में भीष्मपितामह ने शरशैया पर लेटेलेटे प्रतीक्षा की, जिस उत्तरायण को कृष्ण ने गीता में आत्मा उत्थान प्रक्रिया से जोड़ा, वह पवित्र उत्तरायण पर्व तो मकरसंक्रांति से 24 दिन पहले 21 दिसम्बर को आकर चुपचाप चला जाता है। उस दिन दान पुण्य ही नहीं होता पर डेढ़ हजार वर्ष पुरानी पञ्चाङ्ग अशुद्धि के कारण सारे देश की श्रद्धालु जनता वेद प्रतिष्ठित इस उत्तरायण के 24 दिन बाद आने वाली मकर संक्रान्ति को ही स्नान-दान-पुण्य करने को विवश है। हम अब तो सुधरें।मकर संक्रान्ति अर्थात सूर्य का मकर राशि पर प्रवेश का दिन देश का एकमात्र ऐसा सामाजिक पर्व है जो सारे देश में किसी न किसी नाम से मनाया जाता है। संक्रां ति इस प्रकार हमारी धार्मि कव सांस्कृतिक एकता का प्रतीक नहीं बल्कि मजबूत आधार भी है। यह मकर संक्रां ति मूलतः सूर्य का भूमध्य रेखा पर अधिकतम दक्षिण में जाकर ऊपर उत्तर की तरफ बढ़ने का पर्व अर्थात सूर्य का उत्तर दिशा की तरफ अयन अर्थात चलने का 'उत्तरायण होने का पर्व है जो पञ्चाङ्ग की अशुद्धि के कारण 24 दिन बाद मकर संक्रांति कह कर मनाया जाता है उपनिषदों में, वेदांग ज्योतिष में उत्तरायण की ही महिमा कही गई है और इसे नक्षत्रों के संदर्भ में ही बताया गया है। जबकि 'मकर संक्रान्ति' ऐसा उल्लेख गीता उपनिषदों में तो बिल्कुल ही नहीं है, महाभारत में भी नहीं है, बाद में लिखे गए प्राचीन धर्मसूत्रों आदि में भी नहीं है क्योंकि धर्म सूत्रों के लिखे जाने के समय उस समय राशियाँ चलन में ही नहीं आई थीं। पुराण बहुत बाद में लिखे गए उनमें नक्षत्र व राशि दोनों हैं।लगभग 250-300 ईस्वी में जब ग्रीक राशियाँ चलन में आना शुरू हो रही थीं तब उत्तरायणपर्व को मकर राशि में शामिल किए गए नक्षत्र उत्तराषाढ़ के साथ साथ मकर- आरम्भ से देखने का चलन भी हो रहा था। उस समय उत्तरायण बिन्दु और मकर- आरम्भ के बिन्दु पर थे और वसन्त संपात बिन्दु मेष आरम्भ पर ही थे।सिद्धांत गणित काल में पञ्चाङ्गकर्ताओं ने उत्तर-अयनबिन्दु के साथ-साथ वसन्त संपात को आधार मान कर वर्षमान की गणना को प्राथमिकता देना आरम्भ किया। उस समय पृथ्वी की तीसरी गति अयन-पात चलन के कारण वसन्त संपात बिन्दु अपने मेषके आरम्भ के अंश से पीछे, वृत्त लगभग 50 सेकेंड आफ आर्क पीछे खिसक रहा था और उत्तरायण बिन्दु भी मकर राशि के उत्तराषाढ़ नक्षत्र में पीछे खिसकने लगा था। इसका संज्ञान छठी सदी में वराहमिहिर ने आदित्य-चार - अध्याय में लिया व इसे भय कारक माना। पर खगोल गणितज्ञों ने पृथ्वी की इस तीसरी गति 'अयनचलन' को अमान्य करते हुए वर्ष के कालमान का आधार मेष आरम्भ में अश्वनी नक्षत्र से अश्वनी पर पुनः सूर्य आगमन की अवधि को मान कर स्थिर अश्वनी नक्षत्र पर 'कीलित' कर दिया। यहाँ एक गलती हुई। निर्धारित अश्वनी के स्थिर मेषारम्भ से पुनः उसी अश्वनी बिन्दु पर आने की अवधि को वर्ष की अवधि मानने पर गणना के लिए 50 सेकेंड आफ आर्क अतिरिक्त लेने पड़ रहे थे जिसमें 20 मिनिट ज्यादा लग रहे थे। इस अतिरिक्त समय को अयन चलन का अन्तर नहीं मानते हुए इसी बढ़ी अवधि को जोड़ कर वर्षमान मान लिया गया। (देखें कि ऋतुनिष्ठ वर्षमान 365 दिन 5 घंटे 48 मिनिट 45.2 सेकेंड है जबकि नक्षत्र आधारित भारतीय पञ्चाङ्ग का वर्षमान 365 दिन 6 घंटे 9 मिनिट, 9.8 सेकेंड है जो वास्तव में 20 मिनिट बड़ा है ) यह अशुद्धि सुरसा के मुख की तरह बढ़ते बढ़ते कितनी हुई और इसका क्या दुष्प्रभाव पड़ा इसकी चर्चा आगे की गई है।
सबसे पहले मुंजाल 932 ईस्वी ने इस अशुद्धि की तरफ ध्यान खींचा था तब तक ऋतुनिष्ठ वसन्त संपातबिन्दु की तुलना में स्थिर अश्वनीके बिन्दु को मान कर की गई गणना में यह अशुद्धि नौ दिन की हो गई थी। अर्थात दिन-रात जिस दिन बराबर होते थे उस वसन्त संपात को नौ दिन बाद दर्शाया जा रहा था; सूर्य का उत्तर दिशा -गमन आम्भ के समय दिनका मान बढ़ना जिस दिन से आरम्भ होता था उस उत्तरायण को नौ दिन बाद की तारीख में मकर संक्रांति के रूप में पञ्चाङ्ग में दर्शाया जा रहा था अर्थात उत्तरायण नौ दिन लेट मनाया जा रहा था। यदि यह गलती इसी दसवीं सदी में सुधार ली गई होती तो हम उत्तरायण आज यह 24 दिन लेट 14 जनवरी को नहीं बल्कि ठीक 21 दिसंबर कोही प्रतिवर्ष मना रहे होते। आप कहेंगे कि रुकिए, जाने भी दें, अभी तो मकर संक्रान्ति का गणितएकदम सही है व एकदम पक्का है वर्षों से यह 14 जनवरी को ही होती आई है और होती रहेगी। बस केवल कभी 14 या कभी 15 जनवरी इतना एक दिन का अन्तर ही तो पड़ता है। पर आप थोड़ा धैर्य रखिए कोई गणित नहीं करना है आपको दसवीं सदी के नौ दिन की यह अशुद्धि तेरहवीं सदी में 12-13 दिन की होगई थी। प्रमाण : धर्म शास्त्रियों व पञ्चाङ्ग कर्ताओं को अधिमान्य हेमाद्रि पण्डित के लिखे 'कालनिर्णय' में कहा गया है कि प्रचलित मकरसंक्रांति से बारह दिन पहले उत्तरायण का पुण्यकाल पड़ता है इसलिए संक्रांति के लिए प्रतिपादित दान आदि कृत्य मकरसंक्रांति से बारह दिन पहले भी किया जा सकता है। गणना करने पर मैंने देखा कि हेमाद्रि के काल 1260-70 ईस्वी के समय में उत्तरायण तो 21 दिसम्बर को ही हुआ पर मकर संक्रांति 3 जनवरी को हुई थी। अर्थात तेरहवीं सदी तक उत्तरायण और मकर संक्रांति में 12 13 दिन का अन्तर आ गया था। विवेकानन्द का जन्मदिन 1863 की मकरसंक्रांति का है तब संक्रान्ति 12 जनवरी को 1863 को हुई थी अर्थात 21 दिसम्बर के उत्तरायण से इस संक्रां ति का अन्तर 22 दिन हो गया था, 2015 में यह अन्तर 24 दिन हुआ और अब 2023 में उत्तरायण और मकर संक्रांति में यह अन्तर चौबीस दिन चार घण्टे का हो गया है। जो आगे यह बढ़ेगा ही ।
2100 में मकर संक्रां ति 16 जनवरी, 2200 में 17 जनवरी से बढ़ते बढ़ते यह फरवरी मार्च के वसन्त ऋतुमें फिर ग्रीष्म में आने लगेगी तब हमारी भावी पीढ़ी कहेगी कि इस गर्मी में ईंधन गरम वस्त्र तिलगुड़ दान का क्या औचित्य है -कलियुग आ गया है। संक्रांति ही क्यों सभी त्योहार ऋतु से पहले व ऋतु बाद में आती जा रही हैं जिनका अन्तर अभी 24 दिन होने अधिक नहीं दिखता है
इसलिए पञ्चाङ्ग की अशुद्धि नहीं सुधारी गई तो मकर संक्रांति सहित सभी पर्वों में कलियुग लाने के लिए हम ही जिम्मेदार होंगे। शेक्सपीयर ने एक नाटक में कहा है जो केवल प्रतीक्षा में खड़े रहते हैं वे भी गुनहगार होते हैं: THEY ALSO SERVE WHO STAND AND WAIT. बेहतर होगा कि 14-15 की मकर संक्रांति को हम सामाजिक सांस्कृतिक एकता का प्रतीक माने रहें पर इसके मूल उत्तरायण को जैसा कि हेमाद्रि ने भी लिखा है उत्तरायण के दिन 21 दिसम्बर को हम दानपुण्य और आत्मिक साधना भी करें तभी हम वैदिक संस्कृति के साथ साथ इस महिमामय पर्व के प्रति भी न्याय कर सकेंगे।
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