Even today, that black night of Tashkent is an unsolvable puzzle, special on the death anniversary of Lal Bahadur Shastri: Dr. Keshav Pandey
पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की मौत के 57 साल बाद भी रहस्य से नहीं उठा सका पर्दा
लालबहादुर शास़्त्री का नाम आते ही जेहन में एक ऐसे नेता की तस्वीर उभर कर सामने आती है जो, जन किसान और गरीबों के नेता होने के साथ ही अपनी सरलता, सहजता और ईमानदारी के लिए जाने जाते थे। उन्होंने अपने जीवन काल में आम जन और देश की सेवा की। देश उन्हें कभी हीं भूल सकता। जनसेवक और प्रधानमंत्री के रूप में उनके द्वारा जीवनभर देश के लिए समर्पित भाव से की गई सेवा को समर्पित यह विशेष लेख।
लालबहादुर शास्त्री की आज पुण्यतिथि है। आज ही के दिन 11 जनवरी 1966 को सोवियत संघ (रूस) के ताशकंद से हार्ट अटैक की ख़बर आई कि शास़्त्रीजी ने दुनिया को अलविदा कह दिया। 9 जून 1964 से 11 जनवरी 1966 को अपनी मृत्यु तक लगभग अठारह महीने तक वे भारत के दूसरे प्रधानमन्त्री रहे। प्रधानमंत्री के तौर पर उनका कार्यकाल अद्वितीय रहा।
सर्व प्रथम हम उनके राजनीतिक कॅरियर पर नजर डालते हैं....आजादी के बाद शास्त्री जी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था। गोविंद बल्लभ पंत के मन्त्रिमण्डल में उन्हें पुलिस एवं परिवहन मन्त्रालय मिला। 1951 में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अखिल भारत कांग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किये गये। उन्होंने 1952, 1957 व 1962 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत दिलाया।
जवाहरलाल नेहरू का प्रधानमन्त्री रहते हुए 27 मई, 1964 को निधन हो जाने के बाद साफ सुथरी छवि के कारण शास्त्रीजी को 1964 में देश का प्रधानमन्त्री बनाया गया। उन्होंने 9 जून 1964 को भारत के प्रधानमंत्री का पदभार ग्रहण किया। उनके शासनकाल में 1965 का भारत-पाक युद्ध शुरू हो गया। शास्त्रीजी ने अप्रत्याशित रूप से हुए इस युद्ध में नेहरू के मुकाबले राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी। ताशकंद में पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री अयूब खान के साथ युद्ध समाप्त करने के समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद 11 जनवरी 1966 की रात में ही रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये मरणोपरान्त भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
ये तो हुई उनके राजनीतिक सफर की यात्रा..... अब बात करते हैं उनकी कार्यशैली और ईमानदारी की। जिसे जो भी सुनता है और पढ़ता है वह शास्त्री के गुणगान किए बिना नहीं रह सकता है। यही कारण है कि शास्त्री जी को आत्मनिर्भरता और स्वतंत्रता के लिए देश की आकांक्षाओं में उनके योगदान के लिए एक उत्कृष्ट राजनेता के रूप में माना जाता है। वे असाधारण इच्छाशक्ति वाले शानदार विचारक थे। जिन्होंने अपने जीवन में कठिनाईयों को बड़ी सरलता से न सिर्फ पार किया है बल्कि सभी के लिए प्रेरणा बने हैं। चाहे बचपन में रोजाना दो बार गंगा को तैरकर पार करना हो या प्रधानमंत्री पद रहते हुए भी पैसे की तंगी, जिसके कारण उन्होंने प्रधानमंत्री रहते हुए लोन लेना पड़ा था।
शास्त्री ने बढ़ाई महिमा : लाल बहादुर जी के नाम के साथ शास्त्री जुड़ना भी एक महत्वपूर्ण बात थी। इसी शास़्त्री शब्द ने उनके नाम की महिमा बढ़ा दी। यह बात कम ही लोग जानते होंगे कि शास्त्री न तो उनका गौत्र था और न ही उपनाम। शास्त्री एक उपाधि थी। 1925 में वाराणसी काशी विद्यापीठ से स्नातक होने के बाद उन्हें यह उपाधि दी गई थी। शास्त्री शब्द एक विद्वान या ऐसे व्यक्ति को संदर्भित करता है जो शास़्त्रों का अच्छा जानकार हो। शास्त्री जी के जीवन से जुड़ी वे खास-बातें जो उन्हें आज भी यादों में अमर किए हुए हैं।
- उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधीजी के नेतृत्व में भारत को अंग्रेजो के शासन से मुक्ति दिलाने के लिए रात-दिन संघर्ष किया। असहयोग आंदोलन में उनको जेल भी हुई जबकि उस समय वो 17 वर्ष के थे। हालाँकि नाबालिग होने के कारण उन्हें छोड़ दिया गया था। लेकिन उसके बाद भी वे आज़ादी के लिए कई बार जेल गए। वो अपने जीवन काल में कुल मिलकर 9 वर्ष तक जेल में रहे।
- 1927 में उनका विवाह हो गया। 15 अगस्त 1947 के बाद उन्होंने भारत के प्रथम प्रधनामंत्री जवाहर लाल नेहरु के नेतृत्व में भारत सरकार में कई महत्वपूर्ण पदों का भार संभाला और देश की सेवा की। सबसे हैरानी की बात यह है कि प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने कभी कार तक नहीं रखी।
उन्होंने ही ‘जय जवान-जय किसान’ का नारा दिया। इस नारे का भी एक उद्देश्य था- क्योंकि 1964 में जब वे प्रधानमंत्री बने थे तब देश खाने की चीजें आयात करता था और उस वक्त देश पीएल-480 स्कीम के तहत नॉर्थ अमेरिका पर अनाज के लिए निर्भर था। 1965 में पाकिस्तान से जंग के दौरान देश में भयंकर सूखा पड़ा तब के हालात देखते हुए उन्होंने देशवासियों से एक दिन का उपवास रखने की अपील की और इन्हीं हालात से उन्होंने भारतवासियों को ‘जय जवान-जय किसान’ का नारा दिया।
शास्त्री जी लाला लाजपत राय द्वारा स्थापित लोक सेवक मंडल के भी आजीवन सदस्य रहे थे। सर्वेंट्स ऑफ़ द पीपुल सोसाइटी के रूप में भी जाना जाता था। उन्होंने ही ट्रांसपोर्ट मिनिस्टर बनते ही सबसे पहले इस इंडस्ट्री में महिलाओं को बतौर कंडक्टर लाने की शुरुआत की। महिला कंडक्टर और महिला सीट का प्रावधान के साथ ही भ्रष्टाचार निरोधक समिति का प्रावधान, रेलवे में थर्ड क्लास का प्रावधान जैसे कई प्रावधान बनाये। उन्होंने हरित और श्वेत क्रांति को प्रोत्साहित और बढ़ावा देने का कार्य किया और गुजरात के आनंद में स्थित अमूल दूध सहकारी के साथ मिलकर राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड की स्थापना की।
वे बहुत ही सुलझे हुए और भावनात्मक व्यक्तित्व के मालिक थे। प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर करने के लिए उन्होंने लाठीचार्ज की बजाय पानी की बौछार का सुझाव दिया जिसे बहुत पसंद किया गया। शास्त्री जी की सूझबूझ से ही पाकिस्तान भारत से वर्ष 1965 में युद्ध हार गया था जो कि सोचता था कि वर्ष 1962 में मिली चीन की हार से भारत कमजोर हो गया होगा। शास्त्री सिद्धांतवादी थे, जब वे जेल में थे तब उनकी पत्नी उसके मिलने गई और छुपकर उनके लिए आम ले आईं। यह देख शास्त्री जी बहुत नाराज़ हुए। क्योंकि वो जानते थे जेल में बाहर की चीज़े लगा कानून के खिलाफ है और वो किसी भी तरह कानून का नियमों का उलंघन नहीं करता चाहते थे। अपने जीवन में बहुत सरल, ईमानदार और साधारण व्यक्तित्व के व्यक्ति थे। वे फटे कपड़ों से बाद में रूमाल बनवाते थे औऱ फटे कुर्तों को कोट के नीचे पहनते थे। एक बार शास्त्री जी प्रधानमंत्री रहते हुए एक दुकान पर अपनी पत्नी के लिए साड़ी खरीदने गए। जब शास्त्री जी ने उन साड़ियों का कीमत सुनी तो वो बोले यह बहुत महँगी है, कृपया इससे कम कीमत की साड़ी दिखाओ। दुकान के मालिक ने उन्हें और साड़ियां दिखाई लेकिन शास्त्री जी ने उनकी कीमत भी ज्यादा लगी। दुकान मालिक ने कहा आप तो महंगी से महंगी साड़ी पसंद कर लीजिए हम आपको उपहार में दे देंगे। दुनकादार की बात सुन कर लाल बहादुर शास्त्री जी बोले ‘भले ही मैं इस देश का प्रधानमंत्री हूँ, पर में उतनी ही कीमत का सामान लूंगा, जितनी कीमत में चुका सकूँ। शास्त्री जी के ऐसे अनेक किस्से हैं जिन्हें आज भी सुनाते हैं।
लेकिन शास़्त्री के निधन की घटना ऐसी थी जिसने भी सुना उस पर विश्वास करना मुश्किल था। ताशकंद यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री के साथ गए कुलदीप नैयर ने अपनी जीवनी ’बियॉन्ड द लाइन्स’ में लिखा है कि जब उन्होंने भारत में इसकी सूचना दी तो किसी को यकीन नहीं हो रहा था। उन्होंने यूनाइटेड न्यूज ऑफ इंडिया के कार्यालय में फोन कर सूचना दी थी। उन्होंने किताब में लिखा है, ’उस दिन नाइट ड्यूटी में सुरिंदर धिंगरा थे। ’शास्त्रीजी नहीं रहे’ मैंने उनको यह फ्लैश चलाने को कहा। धिंगरा हंसने लगे और मुझसे कहा कि आप मजाक कर रहे हैं। धिंगरा ने मुझे कहा कि शाम के ही समारोह में तो हमने शास्त्रीजी का भाषण कवर किया है। मैंने फिर उनसे कहा कि समय बर्बाद नहीं करें और तुरंत फ्लैश चलाएं। फिर भी उनको यकीन नहीं आया। तब जाकर मुझे पंजाबी में कुछ कड़े शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ा जिसके बाद वह हरकत में आए।’
भारत में सुभाष चंद्र बोस के तथाकथित रूप से विमान दुर्घटना में मारे जाने की अवधारणा को स्वीकारने के उपरांत हुई किसी बड़े राजनीतिक हस्ती की दूसरी ऐसी संदिग्ध मृत्यु थी जिस पर तत्कालीन भारतीय केंद्र सरकार द्वारा लीपापोती करने का प्रयास किया गया। आज इस हृदय विदारक घटना के 66 वर्षों के उपरांत भी भारतीय जनमानस, अपने लोकप्रिय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी की रहस्यमई परिस्थितियों में हुई संदिग्ध मृत्यु को लेकर उपजे प्रश्नों का उत्तर ढूंढ रहा है। क्योंकि आज भी अबूझ पहेली है ताशकंद की वो काली रात।
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