चमरौआ। कस्बे के कोटखेडा मंदिर पर चल रही भागवत कथा के पंचम दिवस की कथा में नितिन महाराज ने भगवान श्री कृष्ण की बाल लीलाओं विभिन्न राक्षसों के बध की कथाओं का मनमोहक वर्णन किया। जिसमे श्रद्धालुओं ने भी बढ़ चढ़ कर भाग लिया। उन्होंने कहा कि ठाकुरजी को दिखावा, छलावा पसंद नहीं।
चमरौआ के कोटखेडा मंदिर पर चल रही भागवत कथा के पंचम दिवस की शुरुआत भागवत आरती और विश्व शांति के लिए प्रार्थना के साथ की गई। पंचम दिवस के कथा क्रम में दशम स्कन्द के विशेष जो की भागवत का प्राण है। भागवत का प्राण क्यों है ? क्योंकि इसमें भगवान श्री कृष्ण के बाल लीलाओं के विशेषता का वर्णन किया गया। और भगवान श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का श्रवण, गायन दोनों ही जैसे एक चुम्बक, चुम्बक जैसे लोहे को अपनी तरफ खींचती है। वैसे भगवान की बाल लीलाएं श्रवण करने वाले का मन भगवान श्री कृष्ण पूर्ण युगेश्वर के शरणागति हो जाता है। चुम्बक की तरह खींचा हुआ चला जाता है। और वो भाग्यशाली है जिन्होंने अपने जीवन का धेव भगवान श्री कृष्ण के बाल चरित्रों को श्रवण करने का बना रखा है।
महाराज श्री ने आगे कहा कि शास्त्रों में, पुराणो में, रामायण में हर जगह पर मानव जीवन की विशेष बाते लिखी है की मानव जैसा जीवन किसी ओर का नहीं है। जब भगवान मानव जीवन देते हैं इसका मतलब है भगवान तुम्हे मुक्ति प्राप्त करने का, ईश्वर को प्राप्त करने का अवसर देते हैं। अगर तुम मानव जीवन में आ गए हो तो भगवान ने कह दिया है की मैं तुमसे मिलने के लिए तैयार हूं लेकिन ये तुम्हारे कर्मों पर निर्भर करता है की तुम अच्छे मानव बन पाए, भक्त बन पाए तो तुम मुझसे मिलने के अधिकारी हो जाओगे।
महाराज ने पंचम दिवस की कथा प्रारंभ करते हुए कृष्ण जन्म पर नंद बाबा की खुशी का वृतांत सुनाते हुए कहा की जब प्रभु ने जन्म लिया तो वासुदेव जी कंस कारागार से उनको लेकर नन्द बाबा के यहाँ छोड़ आये और वहाँ से जन्मी योगमाया को ले आये। नंद बाबा के घर में कन्हैया के जन्म की खबर सुन कर पूरा गोकुल झूम उठा। महाराज ने कथा का वृतांत बताते हुए पूतना चरित्र का वर्णन करते हुए कहा की पुतना कंस द्वारा भेजी गई एक राक्षसी थी और श्रीकृष्ण को स्तनपान के जरिए विष देकर मार देना चाहती थी। पुतना कृष्ण को विषपान कराने के लिए एक सुंदर स्त्री का रूप धारण कर वृंदावन में पहुंची थी। जब पूतना भगवान के जन्म के ६ दिन बाद प्रभु को मारने के लिए अपने स्तनों पर कालकूट विष लगा कर आई तो मेरे कन्हैया ने अपनी आँखे बंद कर ली, कारण क्या था? क्योकि जब एक बार मेरे ठाकुर की शरण में आ जाता है तो उसका उद्धार निश्चित है। परन्तु मेरे ठाकुर को दिखावा, छलावा पसंद नहीं, आप जैसे हो वैसे आओ। रावण भी भगवान श्री राम के सामने आया परन्तु छल से नहीं शत्रु बन कर, कंस भी सामने शत्रु बन आया पर भगवान ने उनका उद्दार किया। लेकिन जब पूतना और शूपर्णखा आई तो प्रभु ने आखे फेर ली क्योंकि वो मित्र के भेष रख कर शत्रुता निभाने आई थी। मौका पाकर पुतना ने बालकृष्ण को उठा लिया और स्तनपान कराने लगी। श्रीकृष्ण ने स्तनपान करते-करते ही पुतना का वध कर उसका कल्याण किया।
महाराज जी ने कहा संतो ने कई भाव बताए है कि भगवान ने नेत्र बंद किस लिए किए ? इसका तो नाम ही है पूतना, इसके तो पूत है ही नहीं, कितना अशुभ नाम है पूतना। एक ओर भाव है कि इसे किसी के पूत पसंद भी नहीं हैं इसलिए बच्चों को मारने जाती है। भगवान जो भी लीला करते हैं वह अपने भक्तों के कल्याण या उनकी इच्छापूर्ति के लिए करते हैं। श्रीकृष्ण ने विचार किया कि मुझमें शुद्ध सत्त्वगुण ही रहता है, पर आगे अनेक राक्षसों का संहार करना है। अत: दुष्टों के दमन के लिए रजोगुण की आवश्यकताहै। इसलिए व्रज की रज के रूप में रजोगुण संग्रह कर रहे हैं। पृथ्वी का एक नाम ‘रसा’ है। श्रीकृष्ण ने सोचा कि सब रस तो ले चुका हूँ अब रसा (पृथ्वी) रस का आस्वादन करूँ। पृथ्वी का नाम ‘क्षमा’ भी है। माटी खाने का अर्थ क्षमा को अपनाना है। भगवान ने सोचा कि मुझे ग्वालबालों के साथ खेलना है,किन्तु वे बड़े ढीठ हैं। खेल-खेल में वे मेरे सम्मान का ध्यान भी भूल जाते हैं। कभी तो घोड़ा बनाकर मेरे ऊपर चढ़ भी जाते हैं। इसलिए क्षमा धारण करके खेलना चाहिए।
अत: श्रीकृष्ण ने क्षमारूप पृथ्वी अंश धारण किया। भगवान व्रजरज का सेवन करके यह दिखला रहे हैं कि जिन भक्तों ने मुझे अपनी सारी भावनाएं व कर्म समर्पित कर रखें हैं वे मेरे कितने प्रिय हैं। भगवान स्वयं अपने भक्तों की चरणरज मुख के द्वारा हृदय में धारण करते हैं। पृथ्वी ने गाय का रूप धारण करके श्रीकृष्ण को पुकारा तब श्रीकृष्ण पृथ्वी पर आये हैं। इसलिए वह मिट्टी में नहाते, खेलते और खाते हैं ताकि पृथ्वी का उद्धार कर सकें। अत: उसका कुछ अंश द्विजों (दांतों) को दान कर दिया। गोपबालकों ने जाकर यशोदामाता से शिकायत कर दी–’मां ! कन्हैया ने माटी खायी है।’ उन भोले-भाले ग्वालबालों को यह नहीं मालूम था कि पृथ्वी ने जब गाय का रूप धारणकर भगवान को पुकारा तब भगवान पृथ्वी के घर आये हैं। पृथ्वी माटी,मिट्टी के रूप में है अत: जिसके घर आये हैं उसकी वस्तु तो खानी ही पड़ेगी। इसलिए यदि श्रीकृष्ण ने माटी खाली तो क्या हुआ? ‘बालक माटी खायेगा तो रोगी हो जायेगा’ ऐसा सोचकर यशोदामाता हाथ में छड़ी लेकर दौड़ी आयीं। उन्होंने कान्हा का हाथ पकड़कर डाँटते हुये कहा–‘क्यों रे नटखट ! तू अब बहुत ढीठ हो गया है।
श्रीकृष्ण ने कहा–‘मैया ! मैंने माटी कहां खायी है।’ यशोदामैया ने कहा कि अकेले में खायी है। श्रीकृष्ण ने कहा कि अकेले में खायी है तो किसने देखा? यशोदामैया ने कहा–ग्वालों ने देखा। श्रीकृष्ण ने मैया से कहा–’तू इनको बड़ा सत्यवादी मानती है तो मेरा मुंह तुम्हारे सामने है। तुझे विश्वास न हो तो मेरा मुख देख ले।’‘अच्छा खोल मुख।’ माता के ऐसा कहने पर श्रीकृष्ण ने अपना मुख खोल दिया। भगवान के साथ ऐश्वर्यशक्ति सदा रहती है। उसने सोचा कि यदि हमारे स्वामी के मुंह में माटी निकल आयी तो यशोदामैया उनको मारेंगी
और यदि माटी नहीं निकली तो दाऊ दादा पीटेंगे। इसलिए ऐसी कोई माया प्रकट करनी चाहिए जिससे माता व दाऊ दादा दोनों इधर-उधर हों जाएं और मैं अपने स्वामी को बीच के रास्ते से निकाल ले जाऊं। श्रीकृष्ण के मुख खोलते ही यशोदाजी ने देखा कि मुख में चर-अचर सम्पूर्ण जगत विद्यमान है। आकाश, दिशाएं, पहाड़, द्वीप,समुद्रों के सहित सारी पृथ्वी, बहने वाली वायु, वैद्युत, अग्नि, चन्द्रमा और तारों के साथ सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डल, जल, तेज अर्थात्प्रकृति, महतत्त्व, अहंकार, देवगण, इन्द्रियां, मन, बुद्धि, त्रिगुण, जीव, काल, कर्म, प्रारब्ध आदि तत्त्व भी मूर्त दीखने लगे। पूरा त्रिभुवन है, उसमें जम्बूद्वीप है, उसमें भारतवर्ष है, और उसमें यह ब्रज, ब्रज में नन्दबाबा का घर, घर में भी यशोदा और वह भी श्रीकृष्ण का हाथ पकड़े। बड़ा विस्मय हुआ माता को। अब श्रीकृष्ण ने देखा कि मैया ने तो मेरा असली तत्त्व ही पहचान लिया।

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