SHIVPURI भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित श्रमण संस्कृति में श्रमणों की एक विशाल गौरवशाली परम्परा रही है, लेकिन इनमें 20वीं शताब्दी में जन्मे और 74 वर्ष तक संयम जीवन का पालन करने वाले संत सौभाग्य मुनिजी जो कि मालव केसरी, महाराष्ट्र विभूषण, जैन सुधाकर, धर्म दिवाकर, शांतिदूत, संत रत्न जैसी उपाधियों से अलंकृत हैं, अनूठे और विलक्षण हैं। विलक्षण इस संदर्भ में कि महज ढाई वर्ष की उम्र में उन्होंने अपनी माँ को खो दिया और तीन वर्ष की उम्र में पिता का साया भी सिर से उठ गया। इसे दुर्भाग्य कहें या कहें कि माता-पिता के प्रति प्रेम अब ईश्वर के प्रति समर्पित हो गया। स्कूली शिक्षा से उनका कोई नाता नहीं रहा। बाल सुलभ चपलता में उनका कोई मुकाबला नहीं था। चोरी कर फल और मलाई खाने की आदत भी उनमें पड़ गई थी। कौन कह सकता था कि यह बालक भविष्य में जिन शासन का एक महान संत बनेगा, लेकिन ईश्वर ने उनके लिए कुछ अच्छा सोच रखा था। पहले बडनग़र के सेठ श्री चौधरी जी ने भविष्यवाणी की, यह बालक महान व्यक्तित्व वाला होगा। इसके बाद जैनाचार्य श्री नंदलाल जी महाराज की विलक्षण दृष्टि इस बालक पर पड़ी तो उन्होंने उनके भीतर छुपे विशाल ईश्वरीय रूप के दर्शन कर लिए और खैमसरा परिवार जिन्होंने इस बालक को गोद लिया था उससे भिक्षा के रूप में इस बालक को मांग लिया। 27 अप्रैल 1910 को बालक सौभाग्य मुनि सौभाग्य के रूप में बीतराग प्रभु महावीर के संयम पथ पर आरूड़ हो गया। आचार्य नंदलाल जी ने उन्हें पौत्र शिष्य के रूप में स्वीकार किया और संत किशनलाल जी म.सा. से उन्हें शिष्यत्व मिला। अपने पूरे जीवन काल में सौभाग्य मुनि जी अपने गुरुवर को ईश्वर कहकर संबोधित करते रहे। आचार्य प्रवर नंदलाल जी ने अपने प्रिय पौत्र शिष्य की सुप्त प्रतिभा को पहचान कर उसे उभारना शुरू किया और निरक्षर सौभाग्य मुनि को अक्षर ज्ञान देकर शास्त्रों का अध्ययन कराना प्रारंभ किया। इसके साथ ही आचार्य प्रवर माधव मुनि जी ने उन्हें न्याय, काव्य, दर्शन, अलंकार आदि साहित्य की विभिन्न विधाओं में पारंगत किया। उन्हें संस्कृति, प्राकृत, ऊर्दू, अरबी आदि भाषाओं में निष्नात किया। इसके बाद संत सौभाग्य मुनि ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और माँ-बाप को खो देने के बाद अनाथ हुए सौभाग्य मुनि जन-जन के नाथ बने। पूज्य मालव केसरी 14 वर्ष की उम्र में दीक्षित हुए। उनका साधना का प्रारंभिक काल मालवा, मेवाड़, मारवाड़ प्रदेश रहा। उस समय साम्प्रदायिक कट्टरता से वह रूबरू हुए। भगवान महावीर के सपूतों का वैमनस्य देखकर वह दंग रह गए और उन्होंने दृढ़ संकल्प किया कि इस वैमनस्यता और साम्प्रदायिक कट्टरता को मिटाने का मैं भरपूर प्रयास करूंगा। अपने संकल्प के अनुसार उन्होंने गांव-गांव नगर-नगर भ्रमण करते हुए संत पुरुषों एवं श्रावकों से संपर्क स्थापित करके विनम्रतापूर्वक एकता संगठन पर विशेष चर्चा वार्ताएं कीं। देश के एक कोने से दूसरे कोने तक उन्होंने पदविहार किया और उनके भागीरथी प्रयासों के फलस्वरूप ही आज श्रमण संघ की स्थापना हुई है जिसमें 12 हजार साधु साध्वी एक आचार्य के नेतृत्व में जैन धर्म के संदेशों को जन-जन तक पहुंचाने में जुटे हुए हैं। श्रमण संघ के प्रथम आचार्य पद पर आत्माराम म.सा. को सुशोभित करने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सौभाग्यमल जी म.सा. वाणी के जादूगर थे। उनके शिष्य और श्रमण संघ के उपप्रवर्तक प्रकाश मुनिजी महाराज अपने सदगुरू की महिमा का बखान करते हुए बताते हैं कि उनके मन में सरलता, वचन में मधुरता, काया में विनम्रता, विचारों में उदारता, हृदय में विशालता, नयनों में वात्सल्यता, व्यवहार में सुदक्षता, चेहरे पर प्रसन्नता और चिंतन में चैतन्यता जैसे मानवीय और ईश्वरीय गुण विद्यमान थे। शिवपुरी में चातुर्मास कर रहीं प्रसिद्ध जैन साध्वी निमाड़ सौरभ रमणीक कुंवर जी महाराज उनके गुणों को व्यक्त करते हुए भावुक हो उठीं। सौभाग्य मुनि उनके दीक्षा प्रदाता थे। उन्होंने बताया कि गुरूवर अपने दर्शनों के लिए आने वाले भक्तों से अमृत से भरे स्वर में कहते थे कि दया पालो पुण्यवानो, दया पालो भाग्यवानो। उनकी सुशिष्या साध्वी नूतन प्रभाश्री जी बताती हैं कि गुरूवर को वचन सिद्धि प्राप्त थी। उनके मुखारबिंद से निकली हुई प्रत्येक वाणी सिद्ध होती थी। उनकी रतलाम में स्थित समाधि जीवंत समाधि मानी जाती है। समाधि के दर्शन करने जो कोई भी भक्तगण सच्ची श्रद्धा के साथ आता है और अपनी मनोकामना प्रकट करता है तो वह अवश्य पूर्ण होती है। सौभाग्य मुनिजी महाराज ने 50 से अधिक मुनियों और महासतियों को संयम पथ पर गतिमान किया और 24 शिष्य बनाए। दक्षिण भारत में जैन धर्म की प्रभावना बढ़ाने में उनकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही। मैसूर नरेश कृष्णन राजेन्द्र बडय़ार उनके प्रति अगाध श्रद्धा रखते थे। मैसूर नरेश ने अपनी भावना व्यक्त करते हुए कहा कि मैंने अपने जीवन में ऐसे त्यागी संत के दर्शन प्रथमवार किए हैं। हैदराबाद के निजाम भी संत सौभाग्य मुनिजी से बहुत प्रभावित थे। गुरूदेव ने उनसे कहकर एक हजार आर्य समाजियों को जेल से मुक्त कराया था। झाबुआ के महाराज दिलीप सिंह को भी उन्होंने शाकाहार के लिए प्रेरित किया। सेंधवा में मुस्लिम समाज की बहन फातिमा को जैनत्व के संस्कारों से अनुप्राणित कर गुरूवर ने उन्हें जैन बनाया। दीन दुखियों एवं पीडि़त मानवता की सेवा के लिए पारमार्थिक न्यास का गठन कर उन्होंने समाज के गणमान्य नागरिकों को रचनात्मक कार्य करने की प्रेरणा दी। राष्ट्र नायक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य, आचार्य विनोवाभावे, पूर्व राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद से भी उनका जीवंत संपर्क रहा। मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, दिल्ली और मुम्बई आदि क्षेत्रों में भ्रमण कर उन्होंने जिनशासन की प्रभावना बढ़ाकर लोगों को अहिंसा, सत्य, अचोर्य और अपरिग्रह के लिए प्रेरित किया। 22 जुलाई 1984 को संथारा लेकर सौभाग्य मुनिजी ने रतलाम में अपनी देह त्याग की। उनके प्रति जन-जन में श्रद्धा का भाव इतना गहन था कि लोगों ने चंदा कर 14 किलो चांदी का विमान बनाकर उनकी अंतिम यात्रा निकाली जिसमें दो लाख से अधिक लोगों ने भाग लिया तथा मध्यप्रदेश सरकार के तीन मंत्रियों ने अंतिम यात्रा में उपस्थित होकर उन्हें अपनी भावभीनी भावांजलि अर्पित की। ऐसे पूज्य गुरूवर सौभाग्य मुनिजी को शत्-शत् नमन्। हमारा सौभाग्य है कि हमें ऐसे सद्गुरू मिले।

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