शिवपुरी। विश्व पुस्तक मेले प्रगति मैदान दिल्ली में स्त्री पीड़ा विमर्श के विपरीत पुरुष पीड़ा से जुड़ी कहानियों के संग्रहों का विमोचन भावना प्रकाशन के स्टॉल पर हुआ।कल्पना मनोरमा और कृष्णा श्रीवास्तव द्वारा संपादित दो भागों में प्रकाशित इन संग्रहों के नाम "सहमी हुईं धड़कनें" और "कांपती हुईं लकीरें" हैं।विमोचन के अवसर पर वरिष्ठ और समकालीन साहित्यकार उपस्थित थे । इस संग्रह में प्रसिद्ध साहित्यकार प्रमोद भार्गव की कहानी "बलुआ दहशत में है"शामिल है।यह कहानी शिवपुरी के सहारिया आदिवासी और उसके परिवार में एक राजनेता के बेजा हस्तक्षेप से जुड़ी है।यह नेता बलुआ की जमीन हड़पने के साथ उसकी पत्नी पर भी अधिकार जमाना चाहता है।पत्नी भी नेता की ओर आकर्षित है।नतीजतन यह कहानी पीड़ित पुरुष की यथार्थ दास्तान है।
ये दोनों संग्रह पुरुष पीड़ा को रेखांकित करते हैं। सम्यक समाज की स्थापना के लिए जरूरी है कि किसी की भी पीड़ा को नज़रंदाज़ न किया जाए। कृष्णा श्रीवास्तव के उत्साहवर्धन एवं सहयोग से हमने ये प्रयास साध पाया। इस कार्य में सभी सहयोगी लेखकों के प्रति हम कृतज्ञ हैं। इस बाबत कृष्णा श्रीवास्तव का कहना है कि "स्त्री विमर्श की चर्चा लंबे समय से हो रही है,होती भी रहेगी,लेकिन आज पुरुष विमर्श की आवश्यकता महसूस हो रही है। यद्धपि पुरुष शासित समाज में भी कुछ दबंग प्रबुद्ध महिलाओं ने अपना दबाव पुरुषों पर जमा रखा है।"कल्पना मनोरमा का कहना है कि"शिव और शक्ति की अपनी अपनी सत्ताएं हैं और होनी भी चाहिए।शिव,शक्ति की सत्ता का अपहरण नहीं कर सकते तो शक्ति को भी चाहिए कि वे शिव की सत्ता क्यों छीने।"उन्होंने यह भी कहा कि इस मौके पर कल्पना मनोरमा ने बताया कि "2012 में इस विषय ने पीड़ा के रूप में मन पर दस्तक दी थी,2024 में यह कार्य पुस्तकों के रूप में आकार ले सका। अतएव तुलसीदास की बात खूब याद आई,"जो इच्छा करिहहु मन माहीं। प्रभु प्रताप कछु दुर्लभ नाहीं॥"
पुस्तक विमोचन में वरिष्ठ साहित्यकार बलराम ,राजेंद्र दानी, दिव्या माथुर , लंदन से तेजेंद्र शर्मा , कथाकार पंकज सुबीर , चंद्रकांता , शिवमूर्ति , प्रमोद भार्गव,राजीव तनेजा , अर्चना चतुर्वेदी , वंदना बाजपेई , निर्देश निधि , किरण सिंह , डॉ. सुनीता, वंदना गुप्ता, कवि उपेंद्र नाथ रैना , विकास मिश्र , रीता गुप्ता , सुषमा गुप्ता , सौरभ जैन एवं प्रकाशक नीरज मित्तल मौजूद थे।
इस मौके पर कल्पना मनोरमा ने बताया कि "2012 में इस विषय ने पीड़ा के रूप में मन पर दस्तक दी थी,2024 में यह कार्य पुस्तकों के रूप में आकर ले सका। अतएव तुलसीदास की बात खूब याद आई,"जो इच्छा करिहहु मन माहीं। प्रभु प्रताप कछु दुर्लभ नाहीं॥"

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