ग्वालियर। दिनाँक 23/03/2024 को उदभव साहित्यिक मंच की गोष्ठी होली की पूर्व संध्या के उपलक्ष में वरिष्ठ साहित्यकार रामगोपाल भावुक जी के मुख्य आतिथ्य एवं डॉ केशव पाण्डेय की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई|सर्वप्रथम अतिथियों द्वारा माँ सरस्वती का माल्यार्पण कर गोष्ठी का शुभारंभ किया गया|श्री दिनेश विकल द्वारा सरस्वती वंदना प्रस्तुत की गई|
तत्पश्चात संस्था के अध्यक्ष डॉ केशव पाण्डेय एवं सचिव श्री दीपक तोमर ने वरिष्ठ साहित्यकार श्री राम गोपाल भावुक का शाल एवं श्रीफल से सम्मान किया|अपने उद्बोधन में डॉ केशव पाण्डेय ने कहा कि उदभव साहित्यिक मंच समय- समय पर साहित्य की सेवा में जीवन समर्पित करने वाले साहित्यकारों का सम्मान करता रहता है|इसी क्रम में संस्था भवभूति सहित अनेक ऐतिहासिक उपन्यास लिखने वाले डबरा के वरिष्ठ साहित्यकार श्री रामगोपाल भावुक का सम्मान कर गौरवान्वित हो रही है|कार्यक्रम का संचालन सुरेन्द्रपाल सिंह कुशवाहा ने किया|आभार संस्था के सचिव दीपक तोमर ने किया|
गोष्ठी में रचना पाठ करते हुए श्री राम गोपाल भावुक ने पढ़ा –
रँग सुलझन में नहीं उलझन में ही समझो| सुलझन के बाद तो सब कुछ नीरस लगने लगता है|
श्री ललित मोहन त्रिवेदी ने रचना कुछ इस तरह प्रस्तुत की —
जो कल तक था बहुत मीठा
वही रस आज फीका है|
ये सब अंदर की बातें हैं,
ये सब जंजाल जी का है|
घनश्याम भारती ने पढ़ा –
होली की फुहारों में ,बासंती बहारों में
आओ रंगें तन मन हम,आयो सतरंगी मौसम|
सुमधुर गीतकार राजेश शर्मा ने सबको सराबोर करते हुए पढ़ा –
सुधियों के उपवन खिले
उस पर बरसे मेह ,
फागुन –फागुन मन हुआ सावन –सावन देह|
डॉ किंकरपाल सिंह का गीत इस प्रकार था-
अंकुरों में उग आए उल्लास के दिन ,
आ गए फिर फागुनी मधुमास के दिन|
हरगोविंद ठाकुर का गीत इस प्रकार रहा| –
राम जुहार बची है केवल बात विशेष नहीं,
घास फूंस से होली जलती ,जंगल शेष नहीं|
श्री सुरेंद्र सिंह परिहार ने हास्य गीत इस तरह पढ़ा-
मैया मोय गणित समझ नहीं आवे,
इन्न भिन्न को काट –काट मन खिन्न-खिन्न हो जावे |
गोष्ठी का संचालन कर रहे सुरेन्द्र पाल सिंह कुशवाहा ने पढ़ा|
मौसम ने रँग भर दिये कब पौधों के अंग,
कलियाँ फूली देखकर भवरें रह गए दंग|
नवगीतकार प्रदीप पुष्पेंद्र ने पढ़ा –
साठ आते ही शिथिल बेड़ियाँ हैं पाँव में
बोल तोते क्या करेगा लौट कर तू गाँव में|
जगदीश महामना का गीत इस तरह था
पत्थरों पर खिले फूल हम
हर अनय के लिए शूल हम|
दिनेश विकल ने सुनाया-
चाहते मिलना नदी के दो किनारे ,

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