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आनंद मार्ग के संस्थापक भगवान श्री श्री आनन्दमूर्त्ति जी का 103वां जन्मोत्सव आनन्द पूर्णिमा 23 मई को मनाया गया

गुरुवार, 23 मई 2024

/ by Vipin Shukla Mama
शिवपुरी। दिनांक 23 मई 2024। आनंद पूर्णिमा के अवसर पर आनंद मार्ग के प्रवर्तक एवं संस्थापक भगवान श्री श्री आनंदमूर्ति जी का जन्म उत्सव आनंद मार्ग जागृति विवेकानंद कॉलोनी में धूमधाम से मनाया गया। इस अवसर पर प्रातः कीर्तन बाबा नाम केवलम के साथ कार्यक्रम प्रारंभ किया गया और गुरुदेव आनंद मूर्ति जी के जन्म समय  6:07 पर शंख ध्वनि और गुरुदेव के जन्म दिवस आधारित प्रभात संगीतों का गायन किया गया इसके बाद सामूहिक योग साधना कर आनंद वाणी का पाठ किया गया। इस अवसर पर श्री नारायण दास गर्ग द्वारा बताया गया कि विश्वव्यापी समाजिक आध्यात्मिक संगठन आनन्द मार्ग प्रचारक संघ के प्रवर्तक भगवान श्री श्री आनन्दमूर्त्ति जी का जन्म वर्ष 1921 में वैशाखी पूर्णिमा के दिन बिहार प्रान्त के मुंगेर जिले के जमालपुर में एक साधारण मध्य वित्त परिवार में हुआ था। परिवार का दायित्व निभाते हुए वे सामाजिक समस्याओं के कारण और निदान ढूंढने एवं लोगों को योग, साधना आदि की शिक्षा देने में अपना समय देने लगे। सन् 1955 ई. में उन्होंने आनन्द मार्ग प्रचारक संघ की स्थापना की। श्री श्री आनन्दमूर्त्ति जी ने समझा कि जिस जीवन मूल्य (भौतिकवाद) को वर्तमान मानव अपना रहे हैं उससे आंशिक विकास तो हो सकता है परन्तु मानसिक और  आत्मिक विकास के लिए यह उपयुक्त नही है। अतः उन्होंने ऐसे समाज की स्थापना का संकल्प लिया, जिसमें हर व्यक्ति को अपना सर्वांगीण विकास करते हुए अपने मानवीय  मूल्य को ऊपर उठने का सुयोग प्राप्त हो। उन्होंने कहा कि हर एक मनुष्य को शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में विकसित होने का अधिकार है और समाज का कर्तव्य है कि इस अधिकार को ठीक से स्वीकृति दें। वे कहते थे कि कोई भी घृणा योग्य नहीं, किसी को शैतान नहीं कह सकते। मनुष्य तब शैतान या पापी बनता है जब उपयुक्त परिचालन पथ निर्देशन का अभाव होता है और वह अपनी कुप्रवृत्तियों के कारण बुरा काम कर बैठता है। यदि उनकी इन कुप्रवृत्तियों को सप्रवृत्तियों की ओर ले जाया जाए तो वह शैतान नहीं रह जाएगा। हर एक–मनुष्य देव शिशु है इस तत्व को मन में रखकर समाज की हर कर्म पद्धति पर विचार करना उचित होगा। अपराध संहिता या दंड संहिता के विषय में उन्होंने कहा कि मनुष्य को दंड नहीं बल्कि उनका संशोधन करना होगा। उनका कहना था कि सबको एक साथ लेकर चलने में ही समाज की सार्थकता है। यदि कोई यात्रा पथ में पिछड़ जाये, गम्भीर रात की अंधियारी में जब तेज हवा का झोंका उसकी दीप को बुझा दे तो उसे अंधेरे में अकेले छोड़ देने से तो नहीं चलेगा। उसे हाथ पकड़ कर उठाना होगा अपने प्रदीप की रोशनी से उसे दीप शिखा को ज्योति करना होगा। अगर कोई अति घृणित कार्य किया है तो उसका दंड उसे अवश्य मिलेगा पर उससे घृणा करके उसे भूखे रख कर मार डालना मानवता विरोधी कार्य होगा। उनके विचारानुसार हर व्यक्ति का लक्ष्य एक ही है, सभी एक ही लक्ष्य पर पहुंचना चाहते हैं अपनी सूझ एवं समझदारी एवं परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग रास्ता अपनाते हैं। कोई धनोपार्जन, कोई सेवा का पथ अपनाते हैं,लेकिन हर प्रयास के पीछे मौलिक प्रेरणा एक ही रहती है,शाश्वत शान्ति की प्राप्ति, पूर्णत्व की प्राप्ति । अगर व्यक्ति का लक्ष्य समान है तो उनके बीच एकता लाना सम्भव है। आध्यात्मिक भावधारा का सृजन कर विश्व बन्धुत्व के आधार पर एक मानव समाज की स्थापना को वास्तविक रूप दिया जाना सम्भव है। 
 *नव्यमानवतावाद* :
उन्होंने देखा मानव भिन्न-भिन्न प्रकार कुठांओं से ग्रसित है। जिस कारण वह अपना तथा जगत के भिन्न जीवों के बीच सही सम्बन्ध को समझ पाने में सफल नहीं हो रहा है। इस तरह की कुंठा मानव समाज को भिन्न-भिन्न प्रकार के परस्पर विरोधी गुटों में विभाजित कर रही है। विरोध के कारण समाज को काफी नुकसान हो रहा है। यद्यपि एक और वृहद मानवधारा है, जिसे मानवतावाद कहते हैं, लेकिन मानवता नाम पर जो कुछ हो रहा है, वहां भी भू-भाव एवं जाति, मजहब भाव प्रवणता ही छुपे रूप में प्रबल है। मानवता की इसी कमी को दूर करने के उद्देश्य से श्री श्री आनंदमूर्ति जी ने समाज संबंधी वर्तमान धारणा को वृहत कर पशु-पक्षी, पेड़-पौधे को भी भाई-बहन के रूप में समान समाज
के रूप में देखा। जिसे नव्यमानवतावाद कहते हैं। मानवता वाद ही चरम आर्दश नहीं है। मनुष्य के अलावा पृथ्वी पर अन्य जीव भी हैं।
 *प्रउत* :-- 
श्री श्री आनन्दमूर्त्ति जी अपने आर्थिक एवं सामाजिक सिद्धांत का प्रतिपादन करते समय मानव जाति की उन तमाम आवश्यकताओं पर जोर दिये जिस पर मनुष्य का अस्तित्व एवं मूल्य दोनों निर्भर करता है एवं उसके मनोवैज्ञानिक पक्ष पर भी विचार किया। उनका सामाजिक लाभ जन-जन तक पहुंचाना चाहते हैं। ' प्रउत ' आर्थिक संचालन का विकेंद्रीकरण चाहता है ,कारण आमजनता को आर्थिक लाभ तभी मिल सकता है जब हर स्तर पर उसकी भागीदारी हो जनता की आर्थिक प्रक्रिया में भागीदारी के लिए को-ऑपरेटिव उपयुक्त है। अतः "प्रउत" में सहकारिता को अहमियत दिया गया है इस तरह आर्थिक प्रगति को दुरूस्त करने के साथ-साथ उसमें शोषण के सभी द्वारों को बंद करने का प्रयास किया गया है। श्री श्री आनन्दमूर्त्ति जी के अनुसार हर प्रकार की अभिव्यक्ति मानव मात्र को अपने-अपने तरह से प्रभावित करती है।
 *यौगिक चिकित्सा द्रव्य गुण पद्धति :* श्री श्री आनन्दमूर्त्ति जी के अनुसार जितनी भी प्रचलित चिकित्सा प्रणाली है, उनमें कुछ खासियत है। खास-खास बीमारी का इलाज खास-खास पद्धति में है एवं रोग के अनुरूप उसका इलाज उपयुक्त प्रणाली से होता है। इस दिशा में उन्होंने यौगिक चिकित्सा एवं द्रव्य गुण नामक पुस्तक लिख बहुत से असाध्य रोगों के इलाज के लिए नुस्खा दिया. उन्होंने माइक्रोवाइटा नाम सूक्ष्म जैविक सत्ता के बारे में बताकर चिकित्सा प्रणाली को अधिक प्रभावशाली बनाने का प्रयास किया.
 *प्रभात संगीत* :- संस्कृति समाज की रीढ़ होती है श्री श्री आनन्दमूर्त्ति जी ने पांच हजार अठारह की संख्या में प्रभात संगीत लोरी सुनाकर संतप्त मानवता को सांत्वना प्रदान कर आत्मबल से उद्वेलित कर उसे उल्लासित और उत्साहित किया है। 
मानवता के कल्याण के लिए उन्होंने प्रमा का सिद्धांत, योग मनोविज्ञान, वर्ण विज्ञान वर्ण विचित्रता, शब्द चयनिका के साथ-साथ समाज को चलाने के लिए समाजशास्त्र ,दर्शनशास्त्र, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र जैसे जीवन के हर पहलुओं के विकास के लिए संपूर्ण शास्त्र दिया है।
 *आनंद मार्ग यूनिवर्सल रिलीफ टीम* : सन् 1967 में श्री श्री आनन्दमूर्त्ति जी ने एमर्ट की स्थापना की ताकि दुनिया में पीड़ित मानवता की सेवा हो सके। एमर्ट के कार्यकर्ता पूरे विश्व में सेवा मूलक कार्यों के बल पर अपनी पहचान बना पाये हैं। सोमालिया में राहत कार्य को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने एमर्ट को मान्यता दी।  आनंद मार्ग के संस्थापक भगवान श्री श्री आनन्दमूर्त्ति जी ने मानव समाज के कल्याण के लिए विशाल दर्शन एवं विशाल संस्था और इसमें व्यवहारिक रूप देने के लिए हजारों जीवन दानी संन्यासियों को तैयार किया, जो धर्म ध्वजा को लहराते हुए सेवा के संकल्प के साथ जनकल्याणार्थ कार्य में दिन रात जुटें हैं।

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